साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / एकादश सर्ग / पृष्ठ २
"प्रिये, सभी सह सकता हूँ मैं, पर असह्य तुम सबका ताप।"
"किन्तु नाथ, हम सबने इसको लिया नहीं क्या अपने आप?
भूरि-भाग्य ने एक भूल की, सबने उसे सँभाला है,
हमें जलाती, पर प्रकाश भी फैलाती यह ज्वाला है।
कितने कृती हुए, पर किसने इतना गौरव पाया है?
मैं तो कहती हूँ, सुदैव ही यहाँ दुःख यह लाया है!
व्यथा-भरी बातों में ही तो रहता है कुछ अर्थ भरा,
तप में तप कर ही वर्षा में होती है उर्वरा धरा।
लो, देवर आ गये, उन्हीं के घोड़े की ये टापें हैं,
सुदृढ़ मार्ग पर भी द्रुतलय में यथा मुरज की थापें हैं।
राजनीति बाधक न बने तो तनिक और ठहरूँ इस ठौर?"
"सो कुछ नहीं, किन्तु भृत्यों को प्रिये, कष्ट ही होगा और।"
"उन्हें हमारे सुख से बढ़कर नाथ, नहीं कोई सन्तोष,
सदा हमारे दुःखों पर जो देते हैं अपने को दोष।"
आकर--"लघु कुमार आते हैं"--बोली नत हो प्रतिहारी,
"आवें" कहा भरत ने, तत्क्षण आये वे धन्वाधारी।
कृश होकर भी अंग वीर के सुगठित शाण-चढ़े-से थे,
सरल वदन के विनय-तेज युग मिलकर अधिक बढ़े-से थे।
दोनों ओर दुकूल फहरता, निकले थे मानों दो पक्ष,
उड़ कर भी सुस्फूर्ति-मूर्ति वे ला सकते थे अपना लक्ष!
आकर किया प्रणाम उन्होंने, दोनों ने आशीष दिया,
मुख का भाव देख कर उनका सुख पाया, सन्तोष किया।
"कोई तापस, कोई त्यागी, कोई आज विरागी हैं,
घर सँभालने वाले मेरे देवर ही बड़भागी हैं!"
मुसकाकर तीनों ने क्षण भर पाया वर विनोद-विश्राम,
अनुभव करता था अपने में चित्रकूट का नन्दिग्राम।
बोले तब शत्रुघ्न भरत से--"आर्य, कुशलता है पुर में,
प्रभु की स्वागत-सज्जा की ही उत्सुकता सब के उर में।
अपने अतुलित जनपद की जो आकृति मात्र रही थी शेष,
नव्य-भव्य वर्णों का उसमें होता है अब पुनरुन्मेष।
वह अनुभूति-विभाग आपका बढ़ता है विभूति पाकर,
लिखते हैं लोगों के अनुभव लेखक जहाँ तहाँ जाकर।
करते है ज्ञानी-विज्ञानी नित्य नये सत्यों का शोध,
और सर्वसाधारण उनसे बढ़ा रहे हैं निज निज बोध।
नूतन वृत्तों में कवि-कोविद नये गीत रच लाते हैं,
नव रागों में, नव तालों में, गायक उन्हें जमाते हैं।
नये नये साजों-बाजों की शिल्पकार करते हैं सृष्टि,
गूढ़ रहस्यों पर ही प्रतिभा डाल रही है अपनी दृष्टि।
नई नई नाटक-सज्जाएँ सूत्रधार करते हैं नित्य,
और ऐन्द्रजालिक भी अपना भरते है अद्भुत साहित्य।
चित्रकार नव नव दृश्यों को ऐसा अंकित करते हैं,
आनन्दित करने के पहले जो कुछ शंकित करते हैं।"
कहा माण्डवी ने--"उलूक भी लगता है चित्रस्थ भला,
सुन्दर को सजीव करती है, भीषण को निर्जीव कला।"
"वैद्य नवीन वनस्पतियों से प्रस्तुत करते हैं नव योग,
जिनके गन्धस्पर्श मात्र से मिटें गात्र के बहु विध रोग।
सौगन्धिक नव नव सुगन्धियाँ प्रभु के लिए निकाल रहे,
माली नये नये पौधों को उद्यानों में पाल रहे।
एक शाल में बहु विभिन्न दल और विविध वर्धित फल-फूल,
यथा विचित्र विश्व-विटपी में अगणित विटप, एक ही मूल!
तन्तुवाय बुन बना रहे हैं नये नये बहु पट परिधान,--
रखने में फूलों के दल-से, फैलाने में गन्ध-समान!
स्वर्णकार कितने प्रकार से करते हैं मणि-कांचन-योग,
चमत्कार के ही प्रसार में लगे चाव से हैं सब लोग।
गल गल कर ढल रहीं धातुएँ पिघल महानल में जल ज्यों,
हुए टाँकियों के कौशल से उपल सुकोमल उत्पल ज्यों!
फूल-पत्तियों से भूषित हैं फिर सजीव-से नीरस दारु,
कारु-कुशलताएँ हैं अथवा उनकी पूर्वस्मृतियाँ चारु!
वसुधा-विज्ञों ने कितनी ही खोजी नई नई खानें,
पड़े धूलि में होंगे फिर भी कितने रत्न बिना जानें।
श्रमी कृषक निज बीज-वृद्धि का रखते हैं जीवित इतिहास,
राज-घोष में देखा मैं ने आज नया गोवंश-विकास।
विभु की बाट जोहते हैं सब ले ले कर अपने उपहार,
दे देकर निज रचनाओं को नव नव अलंकार-शृंगार।
करा रहे ऊर्जस्वल बल से नित्य नवल कौशल का मेल,
साध रहे हैं सुभट विकट बहु भय-विस्मय-साहस के खेल।
करके नये नये शस्त्रों से नये नये लक्षों को विद्ध,
विविध युद्ध-कौशल उपजा कर करते हैं सैनिकजन सिद्ध।"
कहा माण्डवी ने--"क्या यों ही सच्चे कलह कहीं हम हैं?
हा! तब भी सन्तुष्ट न होकर लगे कल्पना में हम हैं।"
"प्रिये, तुम्हारी सेवा का सुख पाने को ही यह श्रम सर्व,
वीरों के व्रण को बधुओं की स्नेह-दृष्टि का ही चिरगर्व।"
"हाय! हमारे रोने का भी रखते हैं नर इतना मूल्य!"
"हाँ भद्रे, वे नहीं जानते, हँसने का है कितना मूल्य?"
"किन्तु नाथ, मुझको लगती है कलह-मूर्त्ति ही अपनी जाति,
आत्मीयों को भी आपस में हमीं बनातीं यहाँ अराति।"
"आर्ये, तब क्या कहतीं हो तुम यहाँ न होतीं माताएँ?
होता कुछ भी वहाँ कहाँ से जहाँ न होतीं माताएँ?
नहीं कहीं गृह-कलह प्रजा में, हैं सन्तुष्ट तथा सब शान्त,
उनके आगे सदा उपस्थित दिव्य राज-कुल का दृष्टान्त।
अन्न-वृद्धि से तृप्त तथा बहु-कला सिद्धि से सहज प्रसन्न,
अपना ग्राम ग्राम है मानों एक स्वतन्त्र देश समपन्न।
बाध्य हुआ था जो नृप-मण्डल देख हमारी अविचल शक्ति,
साध्य मानता है अब हमको, रखता है मैत्री क्या, भक्ति।
अवधि-यवनिका उठे आर्य, तो देखेंगे पुर के सब वृद्ध--
प्रभु को आप राज्य सौंपेंगे पहले से भी अधिक समृद्ध।"
"सेंत-मेंत के यश का भागी प्रिये, तुम्हारा है भर्त्ता,
करके स्वयं तुम्हारे देवर, कहते हैं मुझको कर्त्ता!"
"नाथ, देखती हूँ इस घर में मैं तो इसमें ही सन्तोष,
गुण अर्पण करके औरों को लेना अपने सिर सब दोष।"
"आर्य, तराई से आया है एक श्वेत शोभन गज आज,
प्रभु के स्वागतार्थ उसके मिष समुपस्थित मानों गिरिराज!
सहज सुगति वह, किन्तु निषादी उसे और शिक्षा देंगे,
प्रभु के आने तक वे उसको उत्सव-योग्य बना लेंगे।"