साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / एकादश सर्ग / पृष्ठ १
एकादश सर्ग
जयति कपिध्वज के कृपालु कवि, वेद-पुराण-विधाता व्यास;
जिनके अमरगिराश्रित हैं सब धर्म, नीति, दर्शन, इतिहास!
बरसें बीत गईं, पर अब भी है साकेत पुरी में रात,
तदपि रात चाहै जितनी हो, उसके पीछे एक प्रभात।
ग्रास हुआ आकाश, भूमि क्या, बचा कौन अँधियारे से?
फूट उसी के तनु से निकले तारे कच्चे पारे-से!
विकच व्योम-विटपी को मानों मृदुल बयार हिलाती है;
अंचल भर-भर कर मुक्ता-फल खाती और खिलाती है!
सौध-पार्श्व में पर्णकुटी है, उसमें मन्दिर सोने का,
जिसमें मणिमय पादपीठ है, जैसा हुआ न होने का।
केवल पादपीठ, उस पर हैं पूजित युगल पादुकाएँ,
स्वयं प्रकाशित रत्न-दीप हैं दोनों के दायें-बायें।
उटज-अजिर में पूज्य पुजारी उदासीन-सा बैठा है,
आप देव-विग्रह मन्दिर से निकल लीन-सा बैठा है।
मिले भरत में राम हमें तो, मिलें भरत को राम कभी;
वही रूप है, वही रंग है, वही जटाएँ, वही सभी!
बायीं ओर धनुष की शोभा, दायीं ओर निषंग-छटा,
वाम पाणि में प्रत्यंचा है, पर दक्षिण में एक जटा!
"आठ मास चातक जीता है अपने घन का ध्यान किये;
आशा कर निज घनश्याम की हमने बरसों बिता दिये!’
सहसा शब्द हुआ कुछ बाहर, किन्तु न टूटा उनका ध्यान,
कब आ पहुँची वहाँ माण्डवी, हुआ न उनको इसका ज्ञान।
चार चूड़ियाँ थीं हाथों में, माथे पर सिन्दूरी बिन्दु,
पीताम्बर पहने थी सुमुखी, कहाँ असित नभ का वह इन्दु?
फिर भी एक विषाद वदन के तपस्तेज में पैठा था,
मानों लौह-तन्तु मोती को बेध उसी में बैठा था।
वह सोने का थाल लिए थी, उस पर पत्तल छाई थी,
अपने प्रभु के लिए पुजारिन फलाहार सज लाई थी।
तनिक ठिठक, कुछ मुड़कर दायें, देख अजिर में उनकी ओर,
शीस झुकाकर चली गई वह मन्दिर में निज हृदय हिलोर।
हाथ बढ़ाकर रक्खा उसने पादपीठ के सम्मुख थाल,
टेका फिर घुटनों के बल हो द्वार-देहली पर निज भाल।
टपक पड़ीं उसकी आँखों से बड़ी बड़ी बूँदें दो-चार,
दूनी दमक उठीं रत्नों की किरणें उनमें डुबकी मार!
यही नित्य का क्रम था उसका, राजभवन से आती थी,
स्वश्रु-सुश्रूषिणी अन्त में पति-दर्शन कर जाती थी।
उठ धीरे, प्रिय-निकट पहुँच कर, उसने उन्हें प्रणाम किया,
चौंक उन्होंने, सँभल ’स्वस्ति’ कह, उसे उचित सम्मान दिया।
"जटा और प्रत्यंचा की उस तुलना का क्या फल निकला?"
हँसने की चेष्टा करके भी हा! रो पड़ी वधू विकला।
"यह विषाद भी प्रिये, अन्त में स्मृति-विनोद बन जावेगा,
दूर नहीं अब अपना दिन भी, आने को है, आवेगा।"
"स्वामी, तदपि आज हम सबके मन क्यों रो रो उठते हैं,
किसी एक अव्यक्त आर्त्ति से आतुर हो हो उठते हैं।"
"प्रिये, ठीक कहती हो तुम यह, सदा शंकिनी आशा है,
होकर भी बहु चित्र-अंकिनी आप रंकिनी आशा है।
विस्मय है, इतनी लम्बी भी अवधि बीतने पर आई,
खड़ा न हो फिर नया विघ्न कुछ, स्वयं सभय चिन्ता छाई।
सुनो, नित्य जन-मनःकल्पना नया निकेत बनाती है,
किन्तु चंचला उसमें सुख से पल भर बैठ न पाती है।
सत्य सदा शिव होने पर भी, विरुपाक्ष भी होता है,
और कल्पना का मन केवल सुन्दरार्थ ही रोता है।
तो भी अपने प्रभु के ऊपर है मुझको पूरा विश्वास,
आर्य कहीं हों, किन्तु आर्य के दिये वचन हैं मेरे पास।
रोक सकेगा कौन भरत को अपने प्रभु को पाने से?
टोक सकेगा रामचन्द्र को कौन अयोध्या आने से?"
"नाथ, यही कह कर माँओं को किसी भाँति कुछ खिला सकी,
पर उर्मिला बहन को यह मैं आज न जल भी पिला सकी।
’कहाँ और कैसे होंगे वे?’--कह कर माँएँ रोती हैं,
’काँटे उन्हें कसकते होंगे’--रह रह धीरज खोती हैं!
किन्तु बहन के बहने वाले आँसू भी सूखे हैं आज,
वरुनी के वरुणालय भी वे अलकों-से रूखे हैं आज!
उनके मुहँ की ओर देख कर आग्रह आप ठिठकता है,
कहना क्या, कुछ सुनने में भी हाय! आज वह थकता है।
दीन-भाव से कहा उन्होंने--’बहन, एक दिन बहुत नहीं,
बरसों निराहार रह कर ये आँखें क्या मर गईं कहीं?’
विवश लौट आई रोकर मैं, लाई हूँ नैवेद्य यहाँ,
’आता हूँ मैं’--कह कर देवर गये उन्हीं के पास वहाँ।"
सनिःश्वास तब कहा भरत ने-"तो फिर आज रहे उपवास।"
"पर प्रसाद प्रभु का?" यह कहकर हुई माण्डवी अधिक उदास।
"सब के साथ उसे लूँगा मैं, बीते,--बीत रही है रात,
हाय! एक मेरे पीछे ही हुआ यहाँ इतना उत्पात!
एक न मैं होता तो भव की क्या असंख्यता घट जाती?
छाती नहीं फटी यदि मेरी, तो धरती ही फट जाती!"
"हाय! नाथ, धरती फट जाती, हम तुम कहीं समा जाते,
तो हम दोनों किसी तिमिर में रह कर कितना सुख पाते।
न तो देखता कोई हमको, न वह कभी ईर्ष्या करता,
न हम देखते आर्त्त किसी को, न यह शोक आँसू भरता।
स्वयं परस्पर भी न देख कर करते हम सब अंगस्पर्श,
तो भी निज दाम्पत्य-भाव का उसे मानती मैं आदर्श।
कौन जानता किस आकर में पड़े हृदय रूपी दो रत्न?
फिर भी लोग किया करते हैं उनकी आशा पर ही यत्न।
ऐसे ही अगणित यत्नों से तुम्हें जगत ने पाया है,
उस पर तुम्हें न हो, पर उसको तुम पर ममता-माया है।
नाथ, न तुम होते तो यह व्रत कौन निभाता, तुम्हीं कहो?
उसे राज्य से भी महार्ह धन देता आकर कौन अहो!
मनुष्यत्व का सत्व-तत्व यों किसने समझा-बूझा है?
सुख को लात मार कर तुम-सा कौन दुःख से जूझा है?
खेतों के निकेत बनते हैं और निकेतों के फिर खेत,
वे प्रासाद रहें न रहें, पर, अमर तुम्हारा यह साकेत।
मेरे नाथ, जहाँ तुम होते दासी वहीं सुखी होती;
किन्तु विश्व की भ्रातृ-भावना यहाँ निराश्रित ही रोती।
रह जाता नरलोक अबुध ही ऐसे उन्नत भावों से,
घर घर स्वर्ग उतर सकता है प्रिय, जिनके प्रस्तावों से।
जीवन में सुख दुःख निरन्तर आते जाते रहते हैं,
सुख तो सभी भोग लेते हैं, दुःख धीर ही सहते हैं।
मनुज दुग्ध से, दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते हैं,
किन्तु हलाहल भव-सागर का शिव-शंकर ही पीते हैं।
धन्य हुए हम सब स्वधर्म की जिस इस नई प्रतिष्ठा से,
समुत्तीर्ण होंगे कितने कुल इसी अतुल की निष्ठा से।
हमें ऐतिहासिक घटनाएँ जो शिक्षा दे जाती हैं,
स्वयं परीक्षा लेने उसकी लौट लौट कर आती हैं।
अब कै दिन के लिए खेद यह, जब यह दुख भी चला चला?
सच कहती हूँ, यह प्रसंग भी मुझको जाते हुए खला!"