साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / दशम सर्ग / पृष्ठ ९
सुन, मैं यह एक दीन माँ,
तुमको हैं अब प्राप्त तीन माँ।
पति का सुख मुख्य मानियो।’
’सुख को भी सहनीय जानियो।’
पिछला उपदेश तात का,
बिसरा-सा वह वेश तात का,
अब भी यह याद आ रहा;
बिसरा-सा सब भान जा रहा।
उनको कब लोभ-मोह था,
पर भाँ भाँ करता बिछोह था।
हम तो उस गोद में रहीं,
उनकी ब्रह्म-दया कहाँ नहीं?
हम पैर पलोटने लगीं--
पड़ पैरों पर लोटने लगीं।
’फिर आकर अंक भेटियो,
थल भूलीं तुम आज बेटियो!’
उस आँगन में खड़ी खड़ी,
भर आँखें अपनी बड़ी बड़ी,
अब भी सुध माँ बिसारतीं,
सहसा चौंक हमें पुकारतीं।
अब आँगन भाँय भाँय है,
करता मारुत साँय साँय है।
झड़ते सब फूल फूट के,
पड़ते हैं बस अश्रु टूट के।
प्रिय आप न जो उबार लें,
हमको मातृवियोग मार लें।
तटिनी, यह ज्ञात है तुझे,
प्रिय ने दुःख भुला दिया मुझे।
सरयू, वह सौख्य क्या कहूँ?
अब तो मैं यह दुःख ही सहूँ।
उतना रस भोग जो जिये,
वह दुर्दैव दृगम्बु भी पिये!
वह हूँ यह मैं अभागिनी,
अपना-सा धन आप त्यागिनी।
विष-सा यह जो वियोग है,
अपना ही सब कर्म-भोग है।
बिनती यह हाथ जोड़ के—
कह, मैंने प्रिय-संग छोड़ के
कुल के प्रतिकूल तो कहीं
अपना धर्म घटा दिया नहीं?
सु-बधू इस गण्य गेह की,
दुहिता होकर मैं विदेह की,
प्रिय को, घर देह-भोग से,
करती वंचित क्या सुयोग से?
रहते घर नाथ, तो निरा
कहती स्त्रैण उन्हें यही गिरा।
जिसमें पुरुषार्थ-गर्व था,
मुझको तो यह एक पर्व था।
करती कल नीर-नाद तू,
सुख पाती अथवा विषाद तू?
अनुमोदन या विरोध है?
मुझको क्या यह आज बोध है?
मन के प्रतिकूल तो कहीं
करते लोग कुभावना नहीं।
तुझको कल-कान्त-नादिनी,
गिनती हूँ अनुकूल वादिनी।
जितना यह दुःख है कड़ा,
उससे प्रत्यय और भी बड़ा।
यदि लीक धरे न मैं रही,
मुझको लीक धरे, यही सही!
सुख शान्ति नहीं, न हो यहाँ,
तुम सन्तोष, बने रहो यहाँ।
सुख-सा यह दुःख भी झिले,
मुझको शान्ति अशान्ति में मिले!
तब जा सुख-नाट्य-नर्तिनी,
बन तू सागर-पार्श्व-वर्तिनी।
पथ देख रही तरंगिणी,
त्रिपथा-सी वह संग-रंगिणी।
यह ओघ अमोघ जायगा;
पथ तो पान्थ स्वयं बनायगा।
चल चित्त तुझे चला रहा,
जलता स्नेह मुझे जला रहा।
गति जीवन में मिली तुझे,
सरिते, बन्धन की व्यथा मुझे।
तन से न सही, अभंगिनी,
मन से हैं हम किन्तु संगिनी।
कह, क्या उपहार दूँ तुझे?
अलकें ही यह दीखतीं मुझे।
लट ले यह एक प्रेम से,
रख राखी, यह नित्य क्षेम से।
सजनी, यह व्यर्थ कोंचती,
मिष से मैं कब बाल नोंचती?
यह बन्धन एक प्रीति का,
इसमें क्या कुछ काम भीति का?
अयि, शुक्तिमयी, सँभाल तू,
रख थाती, यह अश्रु पाल तू!
यदि मैं न रहूँ, नहीं सही,
प्रिय की भेंट बनें यहाँ यही।
अथवा यह क्षार नीर है,
प्रिय क्षाराब्धि तुझे गभीर है।
तब ले दृग-बिन्दु क्षुद्र ये,
बढ़ हो जायँ स्वयं समुद्र ये,
घन पान करें कभी इन्हें,
रुचता है परमार्थ ही जिन्हें।
यह भी इस भाँति धन्य हों,
जगती के उपकार-जन्य हों।
प्रिय के पद धूल से भरे,
सपरागाम्बुजता जहाँ धरे,
यह भी उस धूल में गिरें,
इनके भी दिन यों फिरें फिरें।
वह धूल स्वयं समेट लूँ,
तुझको तो निज ’फूल’ भेंट दूँ!
यश गा निज वीर वृन्द का,
ध्रुव-से धीर गभीर वृन्द का।“
टप टप गिरते थे अश्रु नीचे निशा में,
झड़ झड़ पड़ते थे तुच्छ तारे दिशा में।
कर पटक रही थी निम्नगा पीट छाती,
सन सन करके थी शून्य की साँस आती!
सखी ने अंक में खींचा, दुःखिनी पड़ सो रही,
स्वप्न में हँसती थी हा! सखी थी देख रो रही।