भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / दशम सर्ग / पृष्ठ ८

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरुणोदय देख आग-सा
न उठा कौन मनुष्य जाग-सा?
’अब भी रवि का विकास है,
अब भी सागर रत्न-वास है।
अब भी रवि-वंश शेष है,
वसुधा है, वृहदंस शेष है।
अब भी जल-पूर्ण जन्हुजा,
अब भी राघव की महा भुजा।
शत कार्मुक इक्षु-खण्ड हैं,
मम शुण्डोपम बाहुदण्ड हैं।
यह बात महापमान की,
मम आर्या वह किन्तु जानकी।
उठ आर्य, स्वकार्य कीजिये,
घन को रोहित-दीप्ति दीजिये।’

सुनते सब लोग सन्न थे,
नत भी तात बड़े प्रसन्न थे।
यह भी सुध थी किसे नदि,--
प्रभु धन्वा न चढ़ा सके यदि?
रखता नृप कौन दर्प था?
मणि जीजी, शिव-चाप सर्प था।
कुछ गारुड़-मन्त्र-सा किया,
प्रभु ने जा उसको उठा लिया।
रस का परिपाक हो गया,
चढ़ता चाप चड़ाक हो गया!
प्रभु-साम्य समुद्र-संग था,--
धनुरुल्लोल उठा कि भंग था!

सब हर्ष-निमग्न हो गये,
क्षितिपों के मन भग्न हो गये।
कुछ बोल उठे यही वहाँ--
’बल ही था यह, वीरता कहाँ?’
किसका यह लोभ रो उठा?
मुझको भी सुन क्षोभ हो उठा।
भृकुटी जबलों चढ़े यहाँ
प्रिय ने चाप चढ़ा लिया वहाँ।
निकला रव रोर चीरता--
’किसमें है वह वीर्य-वीरता?
जिसको उसका प्रमाद है,
उसके ऊपर वाम पाद है!’

ध्वनि मण्डप-मध्य छा गई,
तबलों भार्गव-मूर्त्ति आ गई।
प्रभु से भव-चाप भंग था,
प्रिय से भार्गव का प्रसंग था।
मुनि की निज गर्व-गर्जना,
प्रिय की तत्क्षण योग्य तर्जना।
प्रभु की वह सौम्य वर्जना,
सब की थी बस एक अर्जना।
’डरते हम धर्म-शाप से,
न डराओ मुनि, आप चाप से।
द्विजता तक आततायिनी,
वध में है कब दोष-दायिनी?’

सुन-देख हुई विभोर मैं,
बटती थी परिधान-छोर मैं।
अब भी वह ऐंठ सूझती,
तब तो हूँ यह आज जूझती!
प्रभु को निज चाप दे गये,
मुनिता ही मुनि आप ले गये।
सुरलोक जहाँ नगण्य है,
वह व्रज्या-व्रत धन्य धन्य है।

सरयू, जय-दुन्दुभी बजी,
वह बारात बड़ी यहाँ सजी।
भगिनी युग और थीं वहाँ,
वर भ्राता द्वय और थे यहाँ।
कर-पीड़न प्रेम-याग था,
कह, स्वीकार कहूँ कि त्याग था?
वह मोद-विनोद-वाद था,--
जिसमें मग्न स्वयं विषाद था।
वह बन्धन-मुक्ति-मेल-सा,
विधि का सत्य, परन्तु खेल सा!
नर का अमरत्व तत्व था,
वह नारीकुल का महत्व था।
बहु जाग्रत स्वप्न थे नये,
दिन आये कब और वे गये?
कब हा! उस स्वप्न से जगीं,
जब माँ से हम छूटने लगीं।

बिछुड़ा बिछुड़ा विषाद है;
तुझको तो स्ववियोग याद है।
जब तू इस आर्द्र देह से,
पति के गेह चली स्वगेह से।
शतधा स्राविता हुए बिना,
सरिते, क्या द्रविता हुए बिना,
घर से चल तू सकी बता?
कितनी हाय-पछाड़, तू बता!

’मत रो’--कह आप रो उठीं,
 तुम क्यों माँ, यह धैर्य खो उठीं?
’यह मैं जननी प्रपीड़िता,
पर तू है शिशु आप आप क्रीड़िता!’
फिर क्यों शिशु को हटा रहीं?
तुम माँ की ममता घटा रहीं।
’हटती यह आप मैं यहाँ,
तुम हो और सुखी सदा वहाँ।