साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ २
अन्तःपुर में वृत्त प्रथम ही घूम फिरा था,
सबके सम्मुख विषम वज्र-सा टूट गिरा था।
माताओं की दशा--हाय! सूखे पर पाला,
जला रही थी उन्हें कँपा कर ठंढ़ी ज्वाला!
"अम्ब, रहे यह रुदन, वीरसू तुम, व्रत पालो,
ठहरो, प्रस्तुत वैर-वह्नि पर नीर न डालो।
हमने प्रेम-पयोधि भरा आँखों के जल से,
द्विषद्दस्यु अब जलें हमारे द्वेषानल से!
मातः, कातर न हो, अहो! टुक धीरज धारो,
किसकी पत्नी और प्रसू तुम, तनिक विचारो।
असुरों पर निज विजय सुरों ने पाई, जिनसे,
और यहीं खिंच स्वर्ग-सगुणता आई जिनसे।
जननि, तुम्हारे जात आज उन्नत हैं इतने,
उनके करगत हुए आप ऊँचे फल जितने।
कहीं नीच ग्रह विघ्न-रूप होकर अटकेंगे,
तो हम उनको तोड़ शिलाओं पर पटकेंगे!
धर्म तुम्हारी ओर, तुम्हें फिर किसका भय है?
जीवन में ही नहीं, मरण में भी निज जय है।
मरें भले ही अमर, भोगते है जी जी कर;
मर मर कर नर अमर कीर्त्तनामृत पी पीकर।
जन कर हमको स्वयं जूझने को, रोती हो?
गर्व करो, क्यों व्यर्थ दीन-दुर्बल होती हो।
करे हमारा वैरि-वृन्द ही कातर-क्रन्दन,
दो हमको आशीष अम्ब, तुम लो पद-वन्दन।"
"इतना गौरव वत्स, नहीं सह सकती नारी,
पिसते हैं ये प्राण, भार है भीषण भारी।
पाते हैं अवकाश निकलने का भी कब ये?
कहाँ जाँय, क्या करें अभागे, अकृती अब ये?
किये कौन व्रत नहीं, कौन जप नहीं जपे हैं?
हम सबने दिन-रात कौन तप नहीं तपे हैं?
फिर भी थे क्या प्राण यही सुनने को ठहरे?
हुए देव भी हाय! हमारे अन्धे-बहरे!"
"अम्ब, तुम्हारे उन्हीं पुण्य-कर्मों का फल है,
हम सबमें जो आज धर्म-रक्षा का बल है।
थकता है क्यों हृदय हाय! जब वह पकता है?
सुरगण उलटा आज तुम्हारा मुँह तकता है।"
"बेटा, बेटा नहीं समझती हूँ यह सब मैं,
बहुत सह चुकी, और नहीं सह सकती अब मैं।
हाय! गये सो गये, रह गये सो रह जावें,
जाने दूँगी तुम्हें न, वे आवें जब आवें।
तुष्ट तुम्हीं में उन्हें देख कर रही, रहूँगी,
तुम्हें छोड़ कर निराधार मैं कहाँ बहूँगी?
देखूँ, तुझको कौन छीनने मुझसे आता?"
पकड़ पुत्र को लिपट गईं कौशल्या माता।
धाड़ मार कर बिलख रो पड़ी रानी भोली,
पाश छुड़ाती हुई सुमित्रा तब यों बोली--
"जीजी, जीजी, उसे छोड़ दो, जाने दो तुम,
सोदर की गति अमर-समर में पाने दो तुम।
सुख से सागर पार करे यह नागर मानी,
बहुत हमारे लिए यहीं सरयू में पानी।
जा, भैया, आदर्श गये तेरे जिस पथ से,
कर अपना कर्त्तव्य पूर्ण तू इति तक अथ से।
जिस विधि ने सविशेष दिया था मुझको जैसा,
लौटाती हूँ आज उसे वैसा का वैसा।"
पोंछ लिया नयनाम्बु मानिनी ने अंचल से,
कैकेयी ने कहा रोक कर आँसू बल से--
"भरत जायगा प्रथम और यह मैं जाऊँगी,
ऐसा अवसर भला दूसरा कब पाऊँगी?
मूर्त्तिमती आपत्ति यहाँ से मुँह मोड़ेगी,
शत्रु-देश-सा ठौर मिला, वह क्यों छोड़ेगी?"
"अम्ब, अम्ब, तुम आत्म-निरादर करती हो क्यों?
दे नव नव यश हमें अयश से डरती हो क्यों?
क्षमा करो, आपत्ति मुझे भी लगती थीं तुम,
मार्ग-दर्शिनी किन्तु ज्योति-सी जगतीं थीं तुम।"
"वत्स, वत्स, पर कौन जानता उसकी ज्वाला,
उसके माथे वही धुँवा है काला काला!"
"जलता है जो जननि, जाग कर वही जगाता,
जो इतना भी नहीं जानता, हाय! ठगाता।"
"मैं निज पति के संग गई थी असुर-समर में,
जाऊँगी अब पुत्र-संग भी अरि-संगर में।"
"घर बैठो तुम देवि, हेम की लंका कितनी?
उतनी भी तो नहीं, धूल मुट्ठी भर जितनी।
भरतखण्ड के पुरुष अभी मर नहीं गये हैं,
कट उनके वे कोटि कोटि कर नहीं गये हैं।
रोना-धोना छोड़, उठो सब मंगल गाओ,
जाते हैं हम विजय-हेतु, तुम दर्प जगाओ।
रामचन्द्र के संग गये हैं लक्ष्मण वन में,
भरत जायँ, शत्रुघ्न रहे क्या आज भवन में?
भाभी, भाभी, सुनो, चार दिन तुम सब सहना,
’मैं लक्ष्मण-पथ-पथी’ आर्य का है यह कहना--
’लौटूँगा तो संग उन्हीं के और नहीं तो--
नहीं, नहीं, वे मुझे मिलेंगे भला कहीं तो!’
"देवर, तुम निश्चिन्त रहो, मैं कब रोती हूँ?
किन्तु जानती नहीं, जागती या सोती हूँ?
जो हो, आँसू छोड़ आज प्रत्यय पीती हूँ--
जीते हैं वे वहाँ, यहाँ जब मैं जीती हूँ!
जीतो तुम,-श्रुतकीर्त्ति! तनिक रोली तो लाना,
टीका कर दूँ, बहन, इन्हें है झटपट जाना।
जीजी का भी शोच नहीं है मुझको वैसा,
राक्षस-कुल की उन अनाथ बधुओं का जैसा।
नीरव विद्युल्लता आज लंका पर टूटी,
किन्तु रहेगी घनश्याम से कब तक छूटी!"
स्तम्भित-सा था वीर, चढ़ी माथे पर रोली,
पैरों पड़ श्रुतकीर्त्ति अन्त में स्थिर हो बोली--
"जाओ स्वामी, यही माँगती मेरी मति है--
जो जीजी की, उचित वही मेरी भी गति है!
मान मनाया और जिन्होंने लाड़ लड़ाया,
छोटे होकर बड़ा भाग जिनसे है पाया;
जिनसे दुगुना हुआ यहाँ वह भाग हमारा,
हम दोनों की मिले उन्हीं में जीवन-धारा।"
"अर्द्धांगी से प्रिये, यही आशा थी मुझको,
शुभे, और क्या कहूँ, मिले मुँह-माँगा तुझको।"