साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ १
द्वादस सर्ग
ढाल लेखनी, सफल अन्त में मसि भी तेरी,
तनिक और हो जाय असित यह निशा अँधेरी।
ठहर तमी, कृष्णाभिसारिके, कण्टक, कढ़ जा,
बढ़ संजीवनि, आज मृत्यु के गढ़ पर चढ़ जा!
झलको, झलमल भाल-रत्न, हम सबके झलको,
हे नक्षत्र, सुधार्द्र-बिन्दु तुम, छलको छलको।
करो श्वास-संचार वायु, बढ़ चलो निशा में,
जीवन का जय-केतु अरुण हो पूर्व दिशा में।
ओ कवि के दो नेत्र, अनल-जल दोनों बरसो,
लक्ष्मण-सा तनु कहाँ, प्राण! पाओगे, सरसो।
देखो, वह शत्रुघ्न-दृष्टि मानों दहती है,
सदय भरत, यह सुनो, माण्डवी क्या कहती है?--
"कातर हो तुम आर्यपुत्र, होकर नर नामी,
तो अबला क्या करे, बता दो मुझको स्वामी?
पर इतना भी आज तुम्हें अवकाश कहाँ है?
पुनः परीक्षक हुआ हमारा दैव यहाँ है।
भव ने इतना भाव-विभव हमसे है पाया,
उस भावुक को हाय! तदपि सन्तोष न आया।
फिर भी सम्मुख अड़ा खड़ा वह भिक्षुक भूखा,
दया करो हे नाथ, दीन का मुख है सूखा!
हम क्या अब कुछ और नहीं दे सकते उसको?
आदर से इस ठौर नहीं ले सकते उसको?
क्या हम उससे नहीं पूछ सकते हैं इतना--
भाई, हमसे तुझे चाहिए अब क्या-कितना?"
"प्रस्तुत हैं ये प्राण, किन्तु वह सह न सकेगा,
इनको लेकर प्रिये, शान्ति से रह न सकेगा।
देखूँ, जलनिधि जुड़ा सके यदि इनकी ज्वाला,--
पहने है जो स्वर्णपुरी की शाला-माला।"
"स्वामी, निज कर्त्तव्य करो तुम निश्चित मन से,
रहो कहीं भी, दूर नहीं होगे इस जन से।
डरा सकेगा अब न आप दुर्दम यम मुझको,
है अपनों के संग मरण जीवन-सम मुझको।
जो अदृश्य है, वही हमें शंकित करता है,
विकृताकृतियाँ अन्धकार अंकित करता है।
किन्तु मुझे अब नहीं किसी का कोई भय है,
भीषण होता स्वयं निराशा-पूर्ण हृदय है।
न सही, यदि यह लोक हमारे लिए नहीं है,
हम सब होंगे जहाँ, हमारा स्वर्ग वहीं है।
दैव-अभागा दैव--हमारा कर क्या लेगा?
श्रद्धांजलि चिरकाल भुवन भर, भर भर देगा।
संवादों को वायु वहन कर फैलाती है,
अन्तःपुर की याद मुझे रह रह आती है।"
"जाओ, जाओ, प्रिये, सभी को शीघ्र सँभालो,
यह मुख देखें शत्रु, यहाँ तुम देखो-भालो।"
उठी माण्डवी कर प्रणाम प्रिय चरण भिगो कर,
बोले तब शत्रुघ्न शूर सम्मुख नत होकर--
"जाओगी क्या तुम निराश ही? जाओ, आर्ये,
इसी भाँति इस समय स्वस्थता पाओ आर्ये!
सुनती जाओ, किन्तु, तुम्हें है व्यर्थ निराशा,
है अपना ही उदय, और अपनी ही आशा।
रूठा और अदृष्ट मनाने की बातों से,
तो मैं सीधा उसे करूँगा अघातों से!"
"विजयी हो तुम तात, और क्या आज कहूँ मैं?
पर आशा की और कहाँ तक ऐंठ सहूँ मैं?
मेरा भी विश्वास एक, क्यों व्यर्थ बहूँ मैं?
हुई आज निश्विन्त, कहीं भी क्यों न रहूँ मैं।
जो कुछ भी है प्राप्य यहाँ, मैंने सब पाया,
हुई पूर्ण परितृप्त हृदय की ममता-माया।
मुझे किसी के लिए उलहना नहीं रहा अब,
मुझ-सा प्रत्यय प्राप्त करें सब ओर अहा! सब।"
देकर निज गुंजार-गन्ध मृदु-मन्द पवन को,
चढ़ शिविका पर गई माण्डवी राज-भवन को।
रहे सन्न-से भरत, कहा--"शत्रुघ्न!" उन्होंने,
उत्तर पाया--"आर्य!" लगे दोनों ही रोने।
"हनूमान उड़ गये पवन-पथ से हैं कैसे?"
"जल में पंख समेट शफर सर्रक ले जैसे।
उठता वह वातूल वेग से है कब ऐसे?
नहीं, आर्य का बाण गया था उन पर, वैसे!"
"और यहाँ हम विवश बने बैठे हैं कैसे?"
सुन नीरव शत्रुघ्न रहे जैसे के तैसे।
"लोग भरत का नाम आज कैसे लेते हैं?"
"आर्य, नाम के पूर्व साधु-पद वे देते हैं।"
"भारत-लक्ष्मी पड़ी राक्षसों के बन्धन में,
सिन्धु-पार वह बिलख रही है व्याकुल मन में।
बैठा हूँ मैं भण्ड साधुता धारण करके--
अपने मिथ्या भरत नाम को नाम न धर के!
कलुषित कैसे शुद्ध सलिल को आज करूँ मैं,
अनुज, मुझे रिपु-रक्त चाहिए, डूब मरूँ मैं!
मेटूँ अपने जड़ीभूत जीवन की लज्जा,
उठो, इसी क्षण शूर, करो सेना की सज्जा।
पीछे आता रहे राज-मण्डल दल-बल से,
पथ में जो जो पड़ें, चलें वे जल से-थल से।
सजे अभी साकेत, बजे हाँ, जय का डंका,
रह न जाय अब कहीं किसी रावण की लंका!
माताओं से माँग बिदा मेरी भी लेना,
मैं लक्ष्मण-पथ-पथी, उर्मिला से कह देना।
लौटूँगा तो साथ उन्हीं के, और नहीं तो--
नहीं, नहीं, वे मुझे मिलेंगे भला कहीं तो!"
सिर पर नत शत्रुघ्न भरत-निर्देश धरे थे,
पर ’जो आज्ञा’ कह न सके, आवेश-भरे थे।
छू कर उनके चरण द्वार की ओर बढ़े वे,
झोंके पर ज्यों गन्ध, अश्व पर कूद चढ़े वे।
निकला पड़ता वक्ष फोड़ कर वीर-हृदय था,
उधर धरातल छोड़ आज उड़ता-सा हय था।
जैसा उनके क्षुब्ध हृदय में धड़ धड़ धड़ था,
वैसा ही उस वाजि-वेग में पड़ पड़ पड़ था!
फड़ फड़ करने लगे जाग पेड़ों पर पक्षी,
अपलक था आकाश चपल-वल्गित-गति-लक्षी।
क्षण भर वह छवि देख स्वयं विधि की मति मोही,
सिरजा न हो तुरंग-अंग करके आरोही!
उठ कौंधा-सा त्वरित राज-तोरण पर आया,
प्रहरी-दल से सजग सैन्य-अभिवादन पाया।
कूद पड़ा रणधीर, एक ने अश्व सँभाला;
नीरव ही सब हुआ, न कोई बोला-चाला।