साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / एकादश सर्ग / पृष्ठ ६
प्रभु ने दूत भेज रावण को दिया और भी अवसर एक,
हित में अहित, अहित ही में हित, किन्तु मानता है अविवेक।
सर्वनाशिनी बर्बरता भी पाती है विग्रह में नाम,
पड़ा योग्य ही रक्षों को हम ऋक्ष-वानरों से अब काम।
आयुध तो अतिरिक्त समझिए, अस्त्र आप हैं अपने अंग,
दन्त, मुष्टियाँ, नख, कर, पद सब चलने लगे संग ही संग।
मार मार हुंकार साथ ही निज निज प्रभु का जय जयकार,
बहते विटप, डूबते प्रस्तर, बुझते शोणित में अंगार।
निज आहार जिन्हें कहते थे, राक्षस अपने मद में भूल,
हुए अजीर्ण वही हम उनके मारक गुल्म, विदारक शूल।
रण तो राम और रावण का, पण परन्तु है लक्ष्मण का,
शौर्य-वीर्य दोनों के ऊपर साहस उन्हीं सुलक्षण का।
लड़ना छोड़ छोड़ कर बहुधा देखा मैंने उनका युद्ध,
निकले-घुसे घनों में रवि ज्यों, रह न सके क्षण भर भी रुद्ध।
शेल-शूल, असि-परशु, गदा-घन, तोमर-भिन्दिपाल, शर-चक्र,
शोणित बहा रही हैं रण में विविध सार-धाराएँ वक्र।
’आ रे, आ, जा रे, जा!’ कह कह भिड़ते हैं जन जन के साथ,
घन घन, झन झन, सन सन निस्वन होता है हन हन के साथ!
नीचे स्यार पुकार रहे हैं, ऊपर मड़राते हैं गिद्ध,
सोने की लंका मिट्टी में मिलती है लोहे से बिद्ध।
भेद नहीं पाते हैं रविकर दिया शून्य को रज ने पाट,
पर अमोघ प्रभु के शर खर तर जाते हैं अरिकुल को काट।
अपने जिन अगणित वीरों पर गर्वित था वह राक्षसराज,
एक एक करके भी मर कर हुए नगण्य अहो वे आज।
दाँत पीस कर, ओंठ काट कर, करता है वह क्रुद्ध प्रहार,
पर हँस हँस कर ही प्रभु सबका करते हैं पल में प्रतिकार।
देखा आह! आज ही मैंने उन्हें क्रोध करते कुछ काल,
काँप उठे भय से हम सब भी कहूँ शत्रुओं का क्या हाल?
कुपित इन्द्रजित ने, क्रम क्रम से सबको देख काल की भेट,
छोड़ी लक्ष्मण पर लंका की मानों सारी शक्ति समेट।
विधि ने उसे अमोघ किया था, पर न हटे रामानुज धीर;
इसी दास ने दौड़ उठाया हा! उनका निश्चेष्ट शरीर।
धैर्य न छोड़ें आप, शान्त हों, भक्षक से रक्षक बलवान,
उन्हें देख ’हा लक्ष्मण!’ कह कर सजल हुए प्रभु जलद-समान।
जगी उसी क्षण विद्युज्ज्वाला, गरज उठे होकर वे क्रुद्ध,--
’आज काल के भी विरुद्ध है युद्ध-युद्ध बस मेरा युद्ध!
रोऊँगा पीछे, होऊँगा उऋण प्रथम रिपु के ऋण से।’
प्रलयानल-से बढ़े महाप्रभु, जलने लगे शत्रु तृण-से।
एक असह्य प्रकाश-पिण्ड था, छिपी तेज में आकृति में आप;
बना चाप ही रविमण्डल-सा उगल उगल शर-किरण-कलाप।
कोप-कटाक्ष छोड़ता हो ज्यों भृकुटि चढ़ाकर काल कराल;
क्षण भर में ही छिन्न-भिन्न-सा हुआ शत्रु-सेना का जाल।
क्षुब्ध नक्र जैसे पानी में, पर्वत में जैसे विस्फोट,
अरि-समूह में विभु वैसे ही करते थे चोटों पर चोट।
कर-पद रुण्ड-मुण्ड ही रण में उड़ते, गिरते, पड़ते थे,
कल कल नहीं, किन्तु भल भल कर रक्तस्रोत उमड़ते थे।
रिपुओं की पुकार भी मानों निष्फल जाती बारंबार,
गूँज उसे भी दबा रही थी उनके धन्वा की टंकार।
निज निर्घोषों से भी आगे जाते थे उनके आघात;
मानों उस राक्षस-युगान्त में प्रलय-पयोदों के पवि-पात!
सर्वनाश-सा देख सामने रावण को भी कोप हुआ,
पर पल भर में प्रभु के आगे सारा छल-बल लोप हुआ।
'बच रावण, निज वत्स-मरण तक, बन न राम-बाणों का लक्ष,
मेरे वत्स-शोक का साक्षी बने यहाँ तेरा ही वक्ष।
कहाँ इन्द्रजित? किन्तु न होऊँ मैं लक्ष्मण का अपराधी,
जिसने आज यहाँ पर उसकी वध-साधन-समाधि साधी।
राक्षस, तेरे तुच्छ बाण क्या? मेरे इस उर में है शैल;
उसे झेलने के पहले तू मेरा एक विशिख ही झेल।’
अश्व, सारथी और शत्रुभुज एक बाण ने वेध दिया,
मूर्च्छित छोड़ उन्होंने उसको अगणित अरि-पशु-मेध किया।
आँधी में उड़ते पत्तों से, दलित हुए सब सेनानी;
पर उस मेघनाद के बदले आया कुम्भकर्ण मानी।
’भाई का बदला भाई ही!’ गरज उठे वे घन-गम्भीर,
गज पर पंचानन-सम उस पर टूट पड़े उसका दल चीर।
’अनुमोदक तो नहीं किन्तु निज अग्रज का अनुगत हूँ मैं,
निद्रा और कलह दो में ही राघव, सन्तत रत हूँ मैं।
वज्रदन्त, घूम्राक्ष नहीं मैं, नहीं अकम्पन और प्रहस्त,
राम, सूर्य-सम होकर भी तुम समझो मुझको अपना अस्त!’
’निद्रा और कलह का, निशिचर, तू बखान कर रहा सगर्व,
जाग, सुलाऊँ तुझे सदा को, मेटूँ कला-कामना सर्व।’
उस उत्पाती घन ने अपने उपल-वज्र बहु बरसाये,
किन्तु प्रभंजन-बल से प्रभु के उड़ीं घज्जियाँ, शर छाये।
गिरा हमारे दल पर गिरि-सा मरते मरते भी वह घोर,
छोड़ धनुःशर बोले प्रभु भी कर युग कर रावण की ओर--
’आ भाई, वह वैर भूल कर, हम दोनों समदुःखी मित्र,
आ जा, क्षण भर भेंट परस्पर, करलें अपने नेत्र पवित्र!’
हाय! किन्तु इसके पहले ही मूर्च्छित हुआ निशाचर-राज,
प्रभु भी यह कह गिरे-’राम से रावण ही सहृदय है आज!’
सन्ध्या की उस धूसरता में उमड़ा करुणा का उद्रेक,
छलक छलक कर झलके ऊपर नभ के भी आँसू दो एक।
हम सब हाथों पर सँभाल कर उन्हें शिविर में ले आये,
देख अनुज की दशा दयामय,दुगुने आँसू भर लाये।
’सर्व कामना मुझे भेंट कर वत्स, कीर्त्ति-कामी न बनो,
रहे सदा तुम तो अनुगामी, आज अग्रगामी न बनो!’
समझाया वैद्यों ने उनको-’आर्य, अधीर न हों इस भाँति,
अब भी आशा, वही करें बस सफल हो सके वह जिस भाँति।’
’तुच्छ रक्त क्या, इस शरीर में डालो कोई मेरे प्राण,
गत सुन कर भी मुझे जानकी पावेगी दुःखों से त्राण।’
बोल उठे सब--’प्रस्तुत हैं ये प्राण, इन्हें लक्ष्मण पावें,
डूब जायँ हम सौ सौ तारे, चन्द्र हमारे बच जावें।
’संजीवनी मात्र ही स्वामी, आ जावे यदि रातों रात,
तो भी बच सकते हैं लक्ष्मण, बन सकती है बिगड़ी बात।
पंजर भग्न हुआ, पर पक्षी अब भी अटक रहा है आर्य!’
आगे बढ़ बोला मैं--’प्रभुवर, किंकर कर लेगा यह कार्य।’
आया इसीलिए मैं, आहा! हुआ बीच में ही वह काम,
अब आज्ञा दीजे, जाऊँ मैं, चिन्तित होंगे वे गुण-धाम।
मायावी रावण प्रसिद्ध है, किन्तु सत्य-विग्रह श्री राम,
चिन्ता करें न आप चित्त में, निश्चित ही है शुभ परिणाम।"
मारुति ने निज सूक्ष्म गिरा में बीज-तुल्य जो वृत्त दिया,
आते ही इस अश्रु-भूमि में उसने अंकुर-रूप लिया!
चौंक भरत-शत्रुघ्न-माण्डवी मानों यह दुःस्वप्न विलोक,
ओषधि देकर भी कुछ उनसे कह न सके सह कर वह शोक।
खींच कर श्वास आस-पास से प्रयास बिना
सीधा उठ शूर हुआ तिरछा गगन में,
अग्नि-शिखा ऊँची भी नहीं है निराधार कहीं,
वैसा सार-वेग कब पाया सान्ध्य-घन में?
भूपर से ऊपर गया यों वानरेन्द्र मानों
एक नया भद्र भौम जाता था लगन में,
प्रकट सजीव चित्र-सा था शून्य पट पर,
दण्ड-हीन केतन दया के निकेतन में!
लंकानल, शंका-दलन, जय जय पवनकुमार,
तुमने सागर पार कर किया गगन भी पार!