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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / एकादश सर्ग / पृष्ठ ५

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हिम-सम अश्रु और मोती का हार उन्होंने, हमें निहार,
उझल दिया मानों झोंके से,--देकर निज परिचय दो बार।
अश्रु-बिन्दु तो पिरो ले गईं किरणें स्वर्णाभरण विचार,
उनका स्मारक छिन्न हार ही हुआ वहाँ प्रभु का उपहार।
कह सुकण्ठ को बन्धु उन्होंने किया कृतार्थ अंक भर भेट,
बर्बर पशु कह एक बाण से किया बालि का फिर आखेट।
इसके पहले ही विभु-बल का था हमको मिल चुका प्रमाण,
फोड़ गया था सात ताल-तरु वहाँ एक ही उनका बाण।

वर्षा-काल बिताया प्रभु ने उसी शैल पर शंकर-रूप,
हुआ सती सीता के मुख-सा शरच्चन्द्र का उदय अनूप।
भूला पाकर किष्किन्धा का राज्य और दारा सुग्रीव,
स्वयं ब्रह्म ही मायामय है, कितना-सा है जन का जीव?
भूल मित्र का दुःख शत्रु-सा सुख भोगे, वह कैसा मित्र?
पहुँचे पुर में प्रकुपित होकर धन्वी लक्ष्मण चारु-चरित्र।
तारा को आगे करके तब नत वानरपति शरण गया,
देख दीन अबला को सम्मुख आवेगी किसको न दया?
गये सहस्र सहस्र कीश तब करने को देवी की खोज,
दी मुद्रिका मुझे प्रभुवर ने, फेरा मुझ पर स्वकर-सरोज।
दुस्तर क्या है उसे विश्व में प्राप्त जिसे प्रभु का प्रणिधान?
पार किया मकरालय मैं ने उसे एक गोष्पद-सा मान।
देख एक दो विघ्न बीच में हुआ मुझे उलटा विश्वास--
बाधाओं के भीतर ही तो कार्य-सिद्धि करती है वास।
निरख शत्रु की स्वर्णपुरी वह मुझे दिशा-सी भूली थी,
नील जलधि में लंका थी या नभ में सन्ध्या फूली थी!
भौतिक-विभूतियों की निधि-सी, छवि की छत्रच्छाया-सी,
यन्त्रों-मन्त्रों-तन्त्रों की थी वह त्रिकूटिनी माया-सी!
उस भव-वैभव की विरक्ति-सी वैदेही व्याकुल मन में,
भिन्न देश की खिन्न लता-सी पहँचानी अशोक-वन में।
क्षण क्षण में भय खाती थीं वे, कण कण आँसू पीती थीं,
आशा की मारी देवी उस दस्यु-देश में जीती थीं।
थी उस समय रात, मैं छिप कर अश्रु पोंछ था देख रहा,
आकर काल-रूप रावण ने उन मुमूर्षु के निकट कहा--
’कहा मान अब भी हे मानिनि, बन इस लंका की रानी,
कहाँ तुच्छ वहा राम? कहाँ मैं विश्वजयी रावण मानी?’
’जीत न सका एक अबला का मन तू विश्वजयी कैसा?
जिन्हें तुच्छ कहता है, उनसे भागा क्यों, तस्कर, ऐसा?
मैं वह सीता हूँ, सुन रावण, जिसका खुला स्वयंवर था,
वर लाया क्यों मुझे न पामर, यदि यथार्थ ही तू नर था?
वर न सका कापुरुष, जिसे तू, उसे व्यर्थ ही हर लाया,
अरे अभागे, इस ज्वाला को क्यों तू अपने घर लाया?
भाषण करने में भी तुझसे लग न जाय हा! मुझको पाप,
शुद्ध करुँगी मैं इस तनु को अग्नि-ताप में अपने आप।’
विमुख हुईं मौनव्रत लेकर उस खल के प्रति पतिव्रता,
एक मास की अवधि और दे गया पतित, वे रहीं हता।
जाकर तब देवी के सम्मुख मैं ने उन्हें प्रणाम किया,
प्रभु की नाम-मुद्रिका देकर परिचय, प्रत्यय, धैर्य दिया।
’करें न मेरे पीछे स्वामी विषम कष्ट-साहस के काम,
यही दुःखिनी सीता का सुख--सुखी रहें उसके प्रिय-राम।
मेरे धन वे घनश्याम ही, जानेगा यह अरि भी अन्ध,
इसी जन्म के लिए नहीं है राम-जानकी का सम्बन्ध।
देवर से कहना--मैं ने जो मानी नहीं तुम्हारी बात,
उसी दोष का दण्ड मिला यह, क्षमा करो मुझको अब तात!’
मैंने कहा--अम्ब, कहिए तो अभी आपको ले जाऊँ,
बोली वे--’क्या चोरी चोरी मैं अपने प्रभु को पाऊँ?’
माँग अनुज्ञा मैंने उनसे उस उपवन के फल खाये,
और उजाड़ा उसे प्रकृति-वश, मारे जो रक्षक आये।
आया तब कुछ सैनिक लेकर एक पुत्र रावण का अक्ष,
विटपों से भट मार, शत्रु का तोड़ दिया घूँसों से वक्ष।
नागपाश में, विदित इन्द्रजित बाँध ले गया मुझे अहा!
’जीता हुआ जला दो इसको’--रावण ने सक्रोध कहा।
लंका में भी साधु विभीषण था रावण का ही भाई,
लेता रहा पक्ष प्रभु का, पर, सुनता है कब अन्यायी।
तब लपेट तैलाक्त पटच्चर आग लगाई रिपुओं ने,
पर निज पुरी उसी पावक में जलती पाई रिपुओं ने।
जली पाप की लंका जिससे, वह थी एक सती की हूक;
मैं ने तो झटपट समुद्र में कूद बुझा ली अपनी लूक।
देवी ने चूड़ामणि दी थी, मैं ने प्रभु को दी लाकर,
तुष्ट हुए वे सुध पाकर यों मानों उनको ही पाकर।

तब लंका पर हुई चढ़ाई, सजी ऋक्ष-वानर-सेना,
मिल मानों दो सलिल-राशियाँ उमड़ीं फैला कर फेना।
भंग-भित्तियाँ उठा उठा कर सिन्धु रोकने चला प्रवाह,
बाँधा गया किन्तु उलटा वह, सेतु रूप ही है उत्साह।
नीलनभोमण्डल-सा जलनिधि, पुल था छायापथ-सा ठीक,
खींच दी गई एक अमिट-सी पानी पर भी प्रभु की लीक!

उधर विभीषण ने रावण को पुनः प्रेम-वश समझाया,
पर उस साधु पुरुष ने उलटा देशद्रोही पद पाया!
’तात, देश की रक्षा का ही कहता हूँ मैं उचित उपाय,
पर वह मेरा देश नहीं जो करे दूसरों पर अन्याय।
किसी एक सीमा में बँध कर रह सकते हैं क्या ये प्राण?
एक देश क्या, अखिल विश्व का तात, चाहता हूँ मैं त्राण।
वार धर्म पर राज्य जिन्होंने वन का दारुण दुख भोगा,
वे यदि मेरे वैरी होंगे, तो फिर बन्धु कौन होगा?
शत्रु नहीं, शासक वे सबके, आप न इस मद में भूलें,
गुरुतम गज भी सह सकता है क्या लघु अंकुश की हूलें?
परनारी, फिर सती और वह त्याग-मूर्त्ति सीता-सी सृष्टि,
जिसे मानता हूँ मैं माता, आप उसी पर करें कुदृष्टि!
उड़ जावेगा दग्ध देश का सती-श्वास से ही बल-वित्त,
राम और लक्ष्मण तो होंगे कहने भर के लिए निमित्त।’
उपचारक पर रुक्ष रुग्ण-सा रावण उलटा क्षुब्ध हुआ--
’निकल यहाँ से, शत्रु-शरण जा, जिसके गुण पर लुब्ध हुआ।’
’जैसी आज्ञा,’ उठा विभीषण, यह कह उसने किया प्रयाण--
’जँचा इसी में तात; मुझे भी निज पुलस्त्य-कुल का कल्याण।’
वैरी का भाई था, फिर भी प्रभु ने बन्धु-समान लिया,
उसको शरणागत विलोक कर हित से समुचित मान दिया।
कहा मन्त्रियों ने कुछ, तब वे बोले--’दुर्बल हैं हम क्या?
छले धर्म ही हमें हमारा, तो है भला यही कम क्या?’