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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ ४

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अपने मद की नहीं आप ही ऊष्मा सह कर,
झलते थे श्रुति-तालवृन्त दन्ती रह रह कर!
योद्धाओं का धन सुवर्ण से सार सलोना,
जहाँ हाथ में लोह वहाँ पैरों में सोना!
मानों चले सगेह रथीजन बैठ रथों में,
आगे थे टंकार और झंकार पथों में।

पूर्ण हुआ चौगान राज-तोरण के आगे,
कहते थे भट-"कहाँ हमारे शत्रु अभागे?"
दृग असमय उन्निद्र और भी अरुण हुए थे,
प्रौढ़-जरठ भी आज तेज से तरुण हुए थे।
पीवर-मांसल अंस, पृथुल उर, लम्बी बाँहें,
एकाकी हो शेष-भार ले लें, यदि चाहें!
उछल उछल कच-गुच्छ बिखरते थे कन्धों पर,
रण-कंकण थे खेल रहे दृढ़ मणिबन्धों पर।
खचित-तरणि, मणि-रचित केतु झकझका रहे थे,
वस्त्र धकधका रहे, शस्त्र भकभका रहे थे।
हो होकर उद्ग्रीव लोग टक लगा रहे थे,
नगर-जगैया जगर-मगर जगमगा रहे थे।
उतर अरिन्दम प्रथम खण्ड पर आकर ठहरा,
तप्त स्वर्ण का वर्ण दृप्त-मुख पर था गहरा।
हाथ उठाये जहाँ उन्होंने, सन्नाटा था,
सैन्य-सिन्धु में जहाँ ज्वार था, अब भाटा था!
गूँगा सदा प्रकाश, फैलता है निःस्वन-सा,
किन्तु वीर का उदय अरुण-सा था, स्वर घन-सा,--
"सुनो सैन्यजन, आज एक नव अवसर आया,
मैंने असमय नहीं, अचानक तुम्हें जगाया।
जो आकस्मिक वही अधिक आकर्षक होता,
यह साधारण बात, काटता है जो बोता;
क्लीब-कापुरुष जाग जाग कर भी है सोता,
पर साके को शूर स्वप्न में भी कब खोता?
साका, साका, आज वही साका है शूरो,
सिन्धु-पार उड़ रही यही स्वपताका शूरो!
सिन्धु, कहाँ अब सिन्धु? हुआ है जल भी थल-सा,
बँधा विपुल पुल, खुला आर्यकुल का अर्गल-सा!
यह सब किसने किया? उन्हीं प्रभु पुरुषोत्तम ने,
पाया है युग-धर्म-रूप में जिनको हमने।
होकर भी चिरसत्य-मूर्ति हैं नित्य नये जो,
भव्य भोग रख, दिव्य योग के लिए गये जो।
हम जिनका पथ देख रहे हैं, कब वे आवें?
कब हम निज धृति-धाम राम राजा को पावें?
तो फिर आओ वीर, तनिक आगे बढ़ जावें,
उनके पीछे जायँ, उन्हें आगे कर लावें।
चलना भर है हमें, मार्ग है बना बनाया,
मकरालय भी जिसे बीच में रोक न पाया।
किया उन्होंने स्वच्छ उसे, हम अटकेंगे क्यों?
चरण-चिन्ह हैं बने, भूल कर भटकेंगे क्यों?

दुर्गम दक्षिण-मार्ग समझ कर ही निज मन में,
चित्रकूट से आर्य गये थे दण्डक वन में।
शंकाएँ हैं जहाँ, वहीं धीरों की मति है,
आशंकाएँ जहाँ, वहीं वीरों की गति है।
लंका के क्रव्याद वहाँ आकर चरते थे,
भोले भाले शान्त सदय ऋषि-मुनि मरते थे।
सफल न करते आर्य भला फिर वन जाना क्यों?
पुण्यभूमि पर रहे पापियों का थाना क्यों?
भरतखण्ड का द्वार विश्व के लिए खुला है,
भुक्ति-मुक्ति का योग जहाँ पर मिला जुला है।
पर जो इस पर अनाचार करने आवेंगे,
नरकों में भी ठौर न पाकर पछतावेंगे।
जाकर प्रभु ने वहाँ धर्म-संकट सब मेटा,
जय-लक्ष्मी ने उन्हें आप ही आकर भेटा।
दुष्ट दस्यु दल बाँध, रुष्ट होकर हाँ, आये,
पर जीवित वे नहीं एक भी जाने पाये।
झंखाड़ों-से उड़े शत्रु, पर पड़े अनल में,
प्रभु के शर हैं ज्वाल-रूप ही समरस्थल में।
सौ झोंके क्या एक अचल को धर सकते हैं?
एक गरुड़ का सौ भुजंग क्या कर सकते हैं?
पहुँचा यह संवाद अन्त में उस रावण तक,
जो निज गो-द्विज-देव-धर्म-कर्मों का कण्टक।
उसी क्रूर को काढ़, दूर करने भव-भय को,
वन भेजा हो कहीं न माँ ने ज्येष्ठ तनय को?
तप कर विधि से विभव निशाचरपति ने पाया,
वही पाप कर आप राम से मरने आया।
किन्तु सामना कर न सका पापी जब बल से,
अबला हरने चला साधु-वेशी खल छल से।

सुनने को हुंकार सैनिको, यही तुम्हारी,
जिसके आगे उड़े शत्रु की गति-मति सारी,--
सहसा मैंने तुम्हें जगाया है, तुम जागे,
नाच रही है विजय प्रथम ही अपने आगे।
किन्तु विजय तो शरण, मरण में भी वीरों के,
चिर-जीवन है कीर्ति-वरण में भी वीरों के।
भूल जयाजय और भूल कर जीना-मरना,
हमको निज कर्त्तव्य मात्र है पालन करना।
जिस पामर ने पतिव्रता को हाथ लगाया,--
उसको--जिसने अतुल विभव उसका ठुकराया,
प्रभु हैं स्वयं समर्थ, पाप-कर काटें उसके,
राम-बाण हैं सजग, प्राण जो चाटें घुसके।
करता है प्रतिशोध किन्तु आह्वान हमारा,
जगा रहा है जाग हमें अभिमान हमारा।
खींच रहा है आज ज्ञान ही ध्यान हमारा,
लिखे शत्रु-लंका-सुवर्ण आख्यान हमारा।
हाय! मरण से नहीं किन्तु जीवन से भीता,
राक्षसियों से घिरी हमारी देवी सीता।
बन्दीगृह में बाट जोहती खड़ी हुई है,
ब्याध-जाल में राजहंसिनी पड़ी हुई है।