साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ ५
अबला का अपमान सभी बलवानों का है,
सती-धर्म का मान मुकुट सब मानों का है।
वीरो, जीवन-मरण यहाँ जाते आते हैं,
उनका अवसर किन्तु कहाँ कितने पाते हैं?
मारो, मारो, जहाँ वैरियों को तुम पाओ,
मर मर कर भी उन्हें प्रेत होकर लग जाओ!
है अपनों को छोड़ मुक्ति भी अपनी कारा,
पर अपनों के लिए नरक भी स्वर्ग हमारा!
पैर धरें इस पुण्यभूमि पर पामर पापी,
कुल-लक्ष्मी का हरण करें वे सहज सुरापी,
भरलो उनका रुधिर, करो अपनों का तर्पण;
मांस जटायु-समान जनों को कर दो अर्पण!
यात्रा में उत्साह-योग ही मुख्य शकुन है,
फल की चिन्ता नहीं, धर्म की हमको धुन है।
मर क्या, अमर अधीन हमारे कर्मों के हैं?
साक्षी जो मन, बुद्धि और इन मर्मों के हैं।
धन्य, वन्यजन भी न सह सके यह अपकर्षण,
करते हैं वे कूद कूद कर घन संघर्षण!
चलो चलो नरवरो, न वानर ही यश ले लें,
वे ले लें भुज बीस, सीस ही हम दश ले लें।
साधु! साधु! थी मुझे यही आशा तुम सब से--
‘नामशेष रह जायँ वाम वैरी बस अब से।’
निश्चय--‘हमको उन्हें मारना है या मरना।’
जब मरने से नहीं, भला तब किससे डरना?
पौधे-से हम उगे एक क्यारी में बोये,
माली हमें उखाड़ ले चला तो हम रोये।
किन्तु बन्धु, वह हमें जहाँ रोपेगा फिर से,
होगा क्या उपयुक्त न वह इस भुक्त अजिर से?
तदपि चुनौती आज हमारी स्वयमपि यम को,
विश्रुत संजीवनी प्राप्त है अद्भुत हमको!
अपने ऊपर आप परीक्षा उसकी करके,
आंजनेय ले गये उसे यह अम्बर तरके।
लंका की खर-शक्ति आर्य लक्ष्मण ने झेली,
उनकी रक्षा उसी महोषधि ने शिर ले ली।
मारा प्रभु ने कुम्भकर्ण-सा निर्मम नामी,
हुआ विभीषण स्वयं शरण मनु-कुल-अनुगामी।
अब क्या है बस, वीर, बाण-से छूटो, छूटो,
सोने की उस शत्रु-पुरी लंका को लूटो।"
"नहीं, नहीं"--सुन चौंक पड़े शत्रुघ्न और सब,
ऊषा-सी आगई उर्मिला उसी ठौर तब!
वीणांगुलि-सम सती उतरती-सी चढ़ आई,
तालपूर्ति-सी संग सखी भी खिंचती आई!
आ शत्रुघ्न-समीप रुकी लक्ष्मण की रानी,
प्रकट हुई ज्यों कार्तिकेय के निकट भवानी।
जटा-जाल-से बाल विलम्बित छूट पड़े थे,
आनन पर सौ अरुण, घटा में फूट पड़े थे।
माथे का सिंदूर सजग अंगार-सदृश था;
प्रथमातप-सा पुण्य गात्र, यद्यपि वह कृश था।
बायाँ कर शत्रुघ्न-पॄष्ठ पर कण्ठ-निकट था,
दायें कर में स्थूल किरण-सा शूल विकट था।
गरज उठी वह--"नहीं, नहीं, पापी का सोना
यहाँ न लाना, भले सिन्धु में वहीं डुबोना।
धीरो, धन को आज ध्यान में भी मत लाओ,
जाते हो तो मान-हेतु ही तुम सब जाओ।
सावधान! वह अधम-धान्य-सा धन मत छूना,
तुम्हें तुम्हारी मातृभूमि ही देगी दूना।
किस धन से हैं रिक्त कहो, सुनिकेत हमारे?
उपवन फल-सम्पन्न, अन्नमय खेत हमारे।
जय पयस्य-परिपूर्ण सुघोषित घोष हमारे;
अगणित आकर सदा स्वर्ण-मणि-कोष हमारे।
देव-दुर्लभा भूमि हमारी प्रमुख पुनीता,
उसी भूमि की सुता पुण्य की प्रतिमा सीता।
मातृभूमि का मान ध्यान में रहे तुम्हारे,
लक्ष लक्ष भी एक लक्ष रक्खो तुम सारे।
हैं निज पार्थिव-सिद्धि-रूपिणी सीता रानी,
और दिव्य-फल-रूप राम राजा बल-दानी।
करे न कौणप-गन्ध कलंकित मलय पवन को,
लगे न कोई कुटिल कीट अपने उपवन को।
विन्ध्य-हिमालय-भाल, भला! झुक जाय न धीरो,
चन्द्र-सूर्य-कुल-कीर्ति-कला रुक न जाय न वीरो!
चढ़ कर उतर न जाय, सुनो, कुल-मौक्तिक मानी,
गंगा-यमुना-सिन्धु और सरयू का पानी।
बढ़ कर इसी प्रसिद्ध पुरातन पुण्यस्थल से,
किये दिग्विजय बार बार तुमने निज बल से।
यदि, परन्तु कुल-कान तुम्हारी हो संकट में,
तो अपने ये प्राण व्यर्थ ही हैं इस घट में।
किसका कुल है आर्य बना अपने कार्यों से?
पढ़ा न किसने पाठ अवनितल में आर्यों से?
पावें तुमसे आज शत्रु भी ऐसी शिक्षा,
जिसका अथ हो दण्ड और इति दया दया-तितिक्षा।
देखो, निकली पूर्व दिशा से अपनी ऊषा,
यही हमारी प्रकृत पताका, भव की भूषा।
ठहरो, यह मैं चलूँ कीर्ति-सी आगे आगे,
भोगें अपने विषम कर्म-फल अधम अभागे!"
भाल-भाग्य पर तने हुए थे तेवर उसके,
"भाभी! भाभी!" रुद्धकण्ठ थे देवर उसके।
सम्मुख सैन्य-समूह सिन्धु-सा गरज रहा था,
वरज विनय से उसे, शत्रु पर तरज रहा था।
“क्या हम सब मर गये हाय! जो तुम जाती हो,
या हमको तुम आज दीन-दुर्बल पाती हो?
मारेंगे हम देवि, नहीं तो मर जावेंगे,
अपनी लक्ष्मी लिए बिना क्या घर आवेंगे?
होगा होगा वही, उचित है जो कुछ होना;
इस मिट्टी पर सदा निछावर है वह सोना।
तुम इस पुर की ज्योति, अहो! यों धैर्य न खोओ,
प्रभु के स्वागत-हेतु गीत रच, थाल सँजोओ।”
“वीरो, पर, यह योग भला क्यों खोऊँगी मैं,
अपने हाथों घाव तुम्हारे धोऊँगी मैं।
पानी दूँगी तुम्हें, न पल भर सोऊँगी मैं;
गा अपनों की विजय, परों पर रोऊँगी मैं।”