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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ ६

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[२]
“शान्त! शान्त!” गम्भीर नाद सुन पड़ा अचानक,
गूँज उठा हो यथा अवनि पर अम्बर-आनक!
कुलपति वृद्ध वसिष्ठ आगये तप के निधि-से,
हंस-वंश-गुरु, हंसनिष्ठ, एकानन विधि-से।

सेना की जो प्रलयकारिणी घटा उठी थी,
अब उसमें नत-नम्र-भाव की छटा उठी थी।
सैन्य-सर्प, जो फणा उठाये फुंकारित थे,
सुन मानों शिव-मन्त्र, विनत, विस्मित, वारित थे।
“शान्त, शान्त! सब सुनो, कहाँ जाते हो, ठहरो;
शौर्य-वीर्य के सघन घनाघन, व्यर्थ न घहरो।
लंका विजितप्राय, तनिक तुम धीरज धारो,
अच्छा, लो, सब इधर क्षितिज की ओर निहारो।”
मन्त्र-यष्टि-सी जहाँ उन्होंने भुजा उठाई,
दूरदृष्टि-सी एक साथ ही सबने पाई!
देखा, सम्मुख दृश्य आप ही खिंच आया है,
अन्धकार में उदित स्वप्न की-सी माया है!
लहराता भरपूर सामने वरुणालय है,
युग युग का अनुभूत विश्व का करुणालय है!
उसमें लंका-द्वीप कनक-सरसिज शोभन है,
लंका के सब ओर घोर-जंगम-जन-वन है।
राम शिविर में,-शरद् घनों में नीलाचल-से,
भीग रहे हैं उत्स-रूप आँखों के जल से।
धातुराग-से पड़े अंक में लक्ष्मण उनके,
बीत रहे हैं हाय! कल्प जैसे क्षण उनके।
जाम्बवन्त, नल, नील, अंगदादिक सेनानी,
रामानुज को देख आज सब पानी पानी।
सहलाते सुग्रीव-विभीषण युग पद-तल हैं,
वैद्य हाथ में हाथ लिये नीरव निश्वल हैं।
जड़ीभूत-से हुए देख साकेत-निवासी,
बोल सके कुछ भी न,--हुए यद्यपि अभिलाषी।
तदपि उर्मिला ने प्रयास कर हाथ उठाया,--
देखा अपना हृदय, मन्द निस्पन्दन पाया!
बोल उठे प्रभु, चौंक भरत ने भी सुन पाया--
“भाई, भाई! उठो, सबेरा होने आया।
मारूँ रावण-सहित इन्द्रजित को मैं, जाओ,-
तुम इस पुर का राज्य विभीषण को दे आओ।
चलो, समय पर मिलें अयोध्या जाकर सब से,
बधू उर्मिला मार्ग देखती है घर कब से?
आये थे तुम साथ हमें सुख ही देने को,
लाये हम भी तुम्हें न थे अपयश लेने को।
तुम न जगे तो सुनो, राम भी सो जावेगा,
सीता का उद्धार असम्भव हो जावेगा।
वीर, कहो फिर कहाँ रहेगी बात तुम्हारी?
क्षत्रियत्व कर रहा प्रतीक्षा तात, तुम्हारी!
अथवा जब तक रात, और सोओ तुम भ्रातः,
देखेंगे अरि-मित्र पद्म-सा तुमको प्रातः।
राम बाण उड़ छेद सुधाकर में कर देगा,
अमृत तुम्हारे लिए सुमधु-सा टपका लेगा!
हनूमान की बाट देख लूँ क्षण भर भाई!”
“समुपस्थित यह दास” पास ही पड़ा सुनाई!
बुरे स्वप्न में वीर आगया उद्बोधन-सा,
ओषधि लेकर किया वैद्य ने व्रण-शोधन-सा।
संजीवनी-प्रभाव घाव पर सबने देखा--
शत्रु-लौहलिपि हुई अहा! पानी की लेखा।
फैल गया आलोक, दूर होगया अँधेरा,
रवि ने अपना पद्म प्रफुल्लित होता हेरा!
चमक उठा हिम-सलिल रात भर बहते बहते,
जाग उठे सौमित्रि-सिंह यह कहते कहते--
“धन्य इन्द्रजित! किन्तु सँभल, बारी अब मेरी!”
चौंक उन्होंने दृष्टि भ्रान्त भौंरी-सी फेरी।
उन्हें हृदय से लगा लिया प्रभु ने भुज भरके,
अब्धि-अंक में उठा कलाधर यथा उभर के!
“भाई, मेरे लिए लौट फिर भी तू आया,
जन्म जन्म का इसी जन्म में मैंने पाया!”
“प्रस्तुत है यह दास आर्य-चरणों का चेरा,
किन्तु कहाँ वह मेघनाद प्रतिपक्षी मेरा?”
“लक्ष्मण! लक्ष्मण! हाय! न चंचल हो पल पल में,
क्षण भर तुम विश्राम करो इस अंकस्थल में।”
“हाय नाथ! विश्राम? शत्रु अब भी है जीता,
कारागृह में पड़ी हमारी देवी सीता!
जब तक रहा अचेत अवश था आप पड़ा मैं,
अब सचेत हूँ और स्वस्थ-सन्नद्ध खड़ा मैं।
बीत गई यदि अवधि, भरत की क्या गति होगी?-
धरे तुम्हारा ध्यान एक युग से जो योगी।
माताएँ निज अंक-दृष्टि भरने को बैठीं,
पुर-कन्याएँ कुसुम-वृष्टि करने को बैठीं।
आर्य अयोध्या जायँ, युद्ध करने मैं जाऊँ,
पहले पहुँचें आप और मैं पीछे आऊँ।
यदि वैरी को मार न कुल-लक्ष्मी को लाऊँ,
तो मेरा यह शाप मुझे--मैं सुगति न पाऊँ!”
“ऐसे पाकर तात! तुम्हें कैसे छोड़ूँ मैं?”
“किन्तु आर्य, क्या आज शत्रु से मुहँ मोड़ूँ मैं?
व्यर्थ जिया मैं, हुआ आर्य को मोह यहीं तो,
दूना बदला आप चुकाते आज नहीं तो!
मैं तो उठ भी सका शत्रु की शक्ति ठेल कर,
किन्तु उठेगा शत्रु न मेरा शेल झेल कर।
वानरेन्द्र, ऋक्षेन्द्र, करो प्रस्तुत सब सेना,
रिपु का व्रण-ऋण मुझे अभी चुकता कर देना!
जय जय राघव राम!” कह लक्ष्मण ने ज्यों ही,
गरज उठा सब कटक विकट रव करके त्यों ही।
वह लंका की ओर चला चारों द्वारों से,
उमड़ा प्रलय-पयोधि घुमड़ सौ सौ ज्वारों से।