साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ४
कि ’तुमको भी निज पुत्र-वियोग
बनेगा प्राण-विनाशक रोग।’
अस्तु यह भरत-विरह अक्लिष्ट
दुःखमय होकर भी था इष्ट।
इसी मिष पाजाऊँ चिरशान्ति
सहज ही समझूँ तो निष्क्रान्ति!"
दिया नृप को वसिष्ठ ने धैर्य,
कहा--"यह उचित नहीं अस्थैर्य।
ईश के इंगित के अनुसार
हुआ करते हैं सब व्यापार।"
"ठीक है," इतना कह कर भूप
शान्त हो गये सौम्य शुभरूप।
हो रहा था उस समय दिनान्त,
वायु भी था मानों कुछ श्रान्त।
गोत्र-गुरु और देव भी आद्य
प्रणति युत पाकर अर्ध्य सपाद्य
गये तब जाना था जिस ओर,
चले नृप भी भीतर इस ओर।
अरुण संध्या को आगे ठेल,
देखने को कुछ नूतन खेल,
सजे विधु की बेंदी से भाल,
यामिनी आ पहुँची तत्काल।
सामने कैकेयी का गेह
शान्त देखा नृप ने सस्नेह।
मन्थरा किन्तु गई थी ताड़
कि यह है ज्वालामुखी पहाड़!
पधारे तब भीतर भूपाल,
वहाँ जाकर देखा जो हाल
रह गये उससे वे जड़-तुल्य;
बढ़ा भय-विस्मय का बाहुल्य।
न पाकर मानों आज शिकार
सिंहिनी सोती थी सविकार।
कोप क्या इसका यह एकान्त
प्राण लेकर भी होगा शान्त?
कुशल है यदि ऐसा हो जाय,
भूप-मुख से निकला बस "हाय!"
टूट कर यह तारा इस रात
न जाने, करे न क्या उत्पात!
पड़ी थी बिजली-सी विकराल,
लपेटे थे घन-जैसे बाल।
कौन छेड़े ये काले साँप?
अवनिपति उठे अचानक काँप।
किन्तु क्या करते, धीरज धार,
बैठ पृथिवी पर पहली बार,
खिलाते-से वे व्याल विशाल,
विनय पूर्वक बोले भूपाल--
"प्रिये, किसलिये आज यह क्रोध?
नहीं होता कुछ मुझको बोध।
तुम्हारा धन है मान अवश्य;
किन्तु हूँ मैं तो यों ही वश्य।
जान पड़ता यह नहीं विनोद,
आज यद्यपि सबको है मोद।
सजे जाते हैं सुख के साज,
तुम्हें क्या दुःख हुआ है आज?
अम्ल हो कर भी मधुर रसाल,
गया निज प्रणय-कलह का काल।
आज हो कर हम रागातीत,
हुए प्रेमी से पितर पुनीत।
भरत की अनुपस्थिति का खेद,
किन्तु है इसमें ऐसा भेद,
निहित है जिसमें मेरा क्षेम,
प्रिये, प्रत्यय रखता है प्रेम।
हुआ हो यदि कुछ रोग-विकार,
बुलाऊँ वैद्य, करूँ उपचार।
अमृत भी मुझको नहीं अलभ्य,
कि मैं हूँ अमर-सभा का सभ्य।
किया हो कहीं किसी ने दोष
कि जिसके कारण है यह रोष,
बता दो तो तुम उसका नाम,
दैव है निश्चय उस पर वाम।
सुनूँ मैं उसका नाम सुमिष्ट,
कौन सी वस्तु तुम्हें है ईष्ट?
जहाँ तक दिनकर-कर-प्रसार,
वहाँ तक समझो निज अधिकार।
किसीको करना हो कुछ दान,
करो तो दुगुना आज प्रदान,
भरा रत्नाकर-सा भण्डार
रीत सकता है किसी प्रकार?
माँगना हो तुमको जो आज
माँग लो, करो न कोप न लाज।
तुम्हें पहले ही दो वरदान
प्राप्य हैं, फिर भी क्यों यह मान?
याद है वह संवर-रण-रंग,
विजय जब मिली व्रणों के संग?
किया था किसने मेरा त्राण?
विकल क्यों करती हो अब प्राण?"
हुआ सचमुच यह प्रिय संवाद,
आ गई कैकेयी को याद।
बिना खोले फिर भी वह नेत्र
चलाने लगी वचन मय वेत्र।
"चलो, रहने दे झूठी प्रीति,
जानती हूँ मैं यह नृप-नीति।
दिया तुमने मुझको क्या मान,
वचन मय वही न दो वरदान?"
भूप ने कहा--"न मारो बोल,
दिखाऊँ कहो हृदय को खोल?