साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ५
तुम्हीं ने माँगा कब क्या आप?
प्रिये, फिर भी क्यों यह अभिशाप?
भला, माँगो तो कुछ इस बार,
कि क्या दूँ दान नहीं, उपहार?"
मानिनी बोली निज अनुरूप--
"न दोगे वे दो वर भी भूप!"
कहा नृप ने लेकर निःश्वास--
"दिलाऊँ मैं कैसे विश्वास?
परीक्षा कर देखो कमलाक्षि,
सुनो तुम भी सुरगण, चिरसाक्षि!
सत्य से ही स्थिर है संसार,
सत्य ही सब धर्मों का सार,
राज्य ही नहीं, प्राण-परिवार,
सत्य पर सकता हूँ सब वार।"
सरल नृप को छलकर इस भाँति,
गरल उगले उरगी जिस भाँति।
भरत-सुत-मणि की माँ मुद मान,
माँगने चली उभय वरदान--
"नाथ, मुझको दो यह वर एक--
भरत का करो राज्य-अभिषेक।
दूसरा यह दो, न हो उदास,
चतुर्दश वर्ष राम-वन-वास!"
वचन सुन ऐसे क्रूर-कराल,
देखते ही रह गये नृपाल।
वज्र-सा पड़ा अचानक टूट,
गया उनका शरीर-सा छूट!
उन्हें यों हतज्ञान-सा देख,
ठोकती-सी छाती पर मेख,
पुनः बोली वह भोंहें तान--
"मौन हो गये, कहो हाँ या न!"
भूप फिर भी न सके कुछ बोल,
मूर्ति-से बैठे रहे अडोल।
दृष्टि ही अपनी करुण-कठोर
उन्होंने डाली उसकी ओर!
कहा फिर उसने देकर क्लेश--
"सत्य-पालन है यही नरेश?
उलट दो बस तुम अपनी बात,
मरूँ मैं करके अपना घात।"
कहा तब नृप ने किसी प्रकार--
"मरो तुम क्यों, भोगो अधिकार।
मरूँगा तो मैं अगति-समान,
मिलेंगे तुम्हें तीन वरदान!"
देख ऊपर को अपने आप
लगे नृप करने यों परिताप--
"दैव, यह सपना है कि प्रतीति?
यही है नर-नारी की प्रीति?
किसीको न दें कभी वर देव;
वचन देना छोड़ें नर-देव।
दान में दुरुपयोग का वास,
किया जावे किसका विश्वास?
जिसे चिन्तामणि-माला जान
हृदय पर दिया प्रधानस्थान;
अन्त में लेकर यों विष-दन्त
नागिनी निकली वह हा हन्त!
राज्य का ही न तुझे था लोभ,
राम पर भी था इतना क्षोभ?
न था वह निस्पृह तेरा पुत्र?
भरत ही था क्या मेरा पुत्र?
राम-से सुत को भी वनवास,
सत्य है यह अथवा परिहास?
सत्य है तो है सत्यानाश,
हास्य है तो है हत्या-पाश!"
प्रतिध्वनि-मिष ऊँचा प्रासाद
निरन्तर करता था अनुनाद।
पुनः बोले मुँह फेर महीप--
"राम, हा राम, वत्स, कुल-दीप!"
हो गये गद्गद वे इस वार,
तिमिरमय जान पड़ा संसार।
गृहागत चन्द्रालोक-विधान
जँचा निज भावी शव-परिधान!
सौध बन गया श्मशान-समान,
मृत्यु-सी पड़ी केकयी जान।
चिता के अंगारे-से दीप,
जलाते थे प्रज्वलित समीप!
"हाय! कल क्या होगा?" कह काँप,
रहे वे घुटनों में मुँह ढाँप।
आप से ही अपने को आज
छिपाते थे मानों नरराज!
वचन पलटें कि भेजें राम को वन में,
उभय विध मृत्यु निश्चित जान कर मन में
हुए जीवन-मरण के मध्य धृत से वे;
रहे बस अर्द्ध जीवित अर्द्ध मृत-से वे।
इसी दशा में रात कटी,
छाती-सी पौ प्रात फटी।
अरुण भानु प्रतिभात हुआ,
विरुपाक्ष-सा ज्ञात हुआ!