साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ १
तृतीय सर्ग
जहाँ अभिषेक-अम्बुद छा रहे थे,
मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे,
वहाँ परिणाम में पत्थर पड़े यों,
खड़े ही रह गये सब थे खड़े ज्यों।
करें कब क्या, इसे बस राम जानें,
वही अपने अलौकिक काम जानें।
कहाँ है कल्पने! तू देख आकर,
स्वयं ही सत्य हो यह गीत गाकर।
बिदा होकर प्रिया से वीर लक्ष्मण--
हुए नत राम के आगे उसी क्षण।
हृदय से राम ने उनको लगाया,
कहा--"प्रत्यक्ष यह साम्राज्य पाया।"
हुआ सौमित्रि को संकोच सुन के
नयन नीचे हुए तत्काल उनके।
न वे कुछ कह सके प्रतिवाद-भय से,
समझते भाग्य थे अपना हृदय से।
कहा आनन्दपूर्वक राम ने तब--
"चलो, पितृ-वन्दना करने चलें अब।"
हुए सौमित्रि पीछे, राम आगे--
चले तो भूमि के भी भाग्य जागे।
अयोध्या के अजिर को व्योम जानों
उदित उसमें हुए सुरवैद्य मानों।
कमल-दल-से बिछाते भूमितल में,
गये दोनों विमाता के महल में।
पिता ने उस समय ही चेत पाकर,
कहा--"हा राम, हा सुत, हा गुणाकर!"
सुना करुणा-भरा निज नाम ज्यों ही,--
चकित होकर बढ़े झट राम त्यों ही।
अनुज-युत हो उठे व्याकुल बड़े वे,
हुए जाकर पिता-सम्मुख खड़े वे।
दशा नृप की विकट संकटमयी थी;
नियति-सी पास बैठी केकयी थी।
अनैसर्गिक घटा-सी छा रही थी;
प्रलय-घटिका प्रकटता पा रही थी।
नृपति कुछ स्वप्नगत-से मौन रह कर--
पुनः चिल्ला उठे-"हा राम!" कहकर।
कहा तब राम ने--"हे तात! क्या है?
खड़ा हूँ राम यह मैं, बात क्या है?
हुए क्यों मौन फिर तुम? हाय! बोलो;
उठो, आज्ञा करो, निज नेत्र खोलो।"
वचन सुनकर फिरा फिर बोध नृप का,
हुआ पर साथ ही हृद्रोध नृप का।
पलक सूजे हुए निज नेत्र खोले,
रहे वे देखते ही, कुछ न बोले!
पिता की देख कर ऐसी अवस्था,
भँवर में पोत की जैसी अवस्था!
अवनि की ओर दोनों ने विलोका,
बड़े ही कष्ट से निज वेग रोका।
बढ़ाई राम ने फिर दृष्टि-रेखा
विमाता केकयी की ओर देखा।
कहा भी--"देवि! यह क्या है, सुनूँ मैं,
कुसुम-सम तात के कण्टक चुनूँ मैं।"
"सुनो, हे राम! कण्टक आप हूँ मैं,
कहूँ क्या और, बस, चुपचाप हूँ मैं।"
हुई चुप केकयी यह बात कहकर,
रहे चुप राम भी आघात सहकर!
कहा सौमित्रि ने--"माँ! चुप हुई क्यों?
चुभाती चित्त में हो यों सुई क्यों?
तुम्हीं ने आपको कण्टक चुना है,
निधन तो रेणुका का तो सुना है?"
इसी क्षण भूप ने कुछ शक्ति पाई;
पिता ने पुत्र की दॄढ़ भक्ति पाई।
बढ़ा कर बाहु तब वे छटपटाये;
उठे, पर पैर उनके लटपटाये!
चढ़ा कर मौन-रोदन-रत्न-माला,
पिता को राम-लक्ष्मण ने सँभाला।
पिता ने भी किया अभिषेक मानों,
न रक्खी सत्य की भी टेक मानों!
हृदय से भूप ने उनको लगाया,
कहा--"विश्वास ने मुझको ठगाया!"
निरखती केकयी थी भोंह तानें,
चढ़ा कर कोप से दो दो कमानें!
पकड़ कर राम की ठोड़ी, ठहर के,
तथा उनका वदन उस ओर करके
कहा गतधैर्य होकर भूपवर ने--
"चली है, देख, तू क्या आज करने!
अभागिन! देख, कोई क्या कहेगा?
यही चौदह बरस वन में रहेगा!
विभव पर हाय! तू भव छोड़ती है,
भरत का राम का जुग फोड़ती है!
भरत का भी न ऐसे राज्य होगा;
प्रजा-कोपाग्नि का वह आज्य होगा।
मरूँगा मैं तथा पछतायगी तू,
यही फल अन्त में बस पायगी तू!"
हुए आवेग से भूपाल गद्गद,
तरंगित हो उठा फिर शोक का नद।
पुनः करने लगे वे राम-रटना,
समझली राम ने भी सर्व घटना।
विमाता बन गई आँधी भयावह,
हुआ चंचल न तो भी श्याम घन वह!
पिता को देख तापित भूमितल-सा,
बरसने यों लगा वर वाक्य-जल-सा--
"अरे, यह बात है तो खेद क्या है?
भरत में और मुझमें भेद क्या है?
करें वे प्रिय यहाँ निज-कर्म-पालन,
करूँगा मैं विपिन में धर्म-पालन।
पिता! इसके लिए ही ताप इतना!
तथा माँ को अहो! अभिशाप इतना!
न होगी अन्य की तो राज-सत्ता,
हमारी ही प्रकट होगी महत्ता।
उभय विध सिद्ध होगा लोक-रंजन,
यहाँ जन-भय वहाँ मुनि-विघ्न-भंजन!
मुझे था आप ही बाहर विचरना,
धरा का धर्म-भय था दूर करना।