साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / तृतीय सर्ग / पृष्ठ २
करो तुम धैर्य-रक्षा, वेश रक्षा,
करूँगा क्या न मैं आदेश-रक्षा?
मुझे यह इष्ट है, चिन्तित न हो तुम,
पडूँ मैं आग में भी जो कहो तुम!
तुम्हीं हो तात! परमाराध्य मेरे,
हुए सब धर्म अब सुखसाध्य मेरे।
अभी सबसे बिदा होकर चला मैं,
करूँ क्यों देर शुभ विधि में भला मैं?"
हुए प्रभु मौन आज्ञा के लिए फिर,
विवश नृप भी हुए अत्यन्त अस्थिर।
"हुए क्यों पुत्र तुम हे राम! मेरे?
यही हैं क्या पिता के काम मेरे!
विधाता!-" बस न फिर कुछ कह सके वे,
हुए मूर्च्छित, न बाधा सह सके वे।
धसकने-सी लगी नीचे धरा भी!
पसीजी पर न पाषाणी जरा भी!
निरखते स्वप्न थे सौमित्र मानों!
स्वयं निस्पन्द थे, निज चित्र मानों!
समझते थे कि मिथ्याऽलीक है यह,
यही बोले कि--"माँ! क्या ठीक है यह?"
कहा तब केकयी ने--"क्या कहूँ मैं?
कहूँ तो रेणुका बनकर रहूँ मैं!
खड़ी हूँ मैं, बनो तुम मातृघाती,
भरत होता यहाँ तो मैं बताती।"
गई लग आग-सी, सौमित्रि भड़के,
अधर फड़के, प्रलय-घन-तुल्य तड़के!
"अरे, मातृत्व तू अब भी जताती!
ठसक किसको भरत की है बताती?
भरत को मार डालूँ और तुझको,
नरक में भी न रक्खूँ ठौर तुझको!
युधाजित आततायी को न छोडूँ,
बहन के साथ भाई को न छोडूँ।
बुलाले सब सहायक शीघ्र अपने,
कि जिनके देखती है व्यर्थ सपने!
सभी सौमित्रि का बल आज देखें,
कुचक्री चक्र का फल आज देखें।
भरत को सानती है आप में क्यों?
पड़ेंगे सूर्यवंशी पाप में क्यों?
हुए वे साधु तेरे पुत्र ऐसे--
कि होता कीच से है कंज जैसे।
भरत होकर यहाँ क्या आज करते,
स्वयं ही लाज से वे डूब मरते!
तुझे सुत-भक्षिणी साँपिन समझते,
निशा को, मुँह छिपाते, दिन समझते!
भला वे कौन हैं जो राज्य लेवें,
पिता भी कौन हैं जो राज्य देवें?
प्रजा के अर्थ है साम्राज्य सारा,
मुकुट है ज्येष्ठ ही पाता हमारा।"
वचन सुन केकयी कुछ भी न बोली,
गरल की गाँठ होठों पर न घोली।
विवश थी, वाक्य उनके सह गई वह,
अधर ही काट कर बस रह गई वह।
अनुज की ओर तब अवलोक करके,
कहा प्रभु ने उन्हें यों रोक करके--
"रहो, सौमित्रि! तुम क्या कह रहे हो?
सँभालो वेग, देखो, बह रहे हो!"
"रहूँ?" सौमित्रि बोले-"चुप रहूँ मैं?
तथा अन्याय चुप रह कर सहूँ मैं?
असम्भव है, कभी होगा न ऐसा,
वही होगा कि है कुल-धर्म जैसा।
चलो, सिंहासनस्थित हो सभा में,
वही हो जो कि समुचित हो सभा में।
चलें वे भी कि जो हों विध्नकारी,
कहो तो लौट दूँ यह भूमि सारी?
खड़ा है पार्श्व में लक्ष्मण तुम्हारे,
मरें आकर अभी अरिगण तुम्हारे।
अमरगण भी नहीं अनिवार्य मुझको,
सुनूँ मैं कौन दुष्कर कार्य मुझको!
तुम्हें कुछ भी नहीं करना पड़ेगा,
स्वयं सौमित्रि ही आगे अड़ेगा।
मुझे आदेश देकर देख लीजे,
न मन में नाथ! कुछ संकोच कीजे।
इधर मैं दास लक्ष्मण हूँ तुम्हारा,
उधर हो जाय चाहे लोक सारा।
नहीं अधिकार अपना वीर खोते,
उचित आदेश ही हैं मान्य होते।
खड़ी है माँ बनी जो नागिनी यह,
अनार्या की जनी, हतभागिनी यह,
अभी विषदन्त इसके तोड़ दूँगा,
न रोको, तुम तभी मैं शान्त हूँगा।
बने इस दस्युजा के दास हैं जो,
इसी से दे रहे वनवास हैं जो,
पिता हैं वे हमारे या--कहूँ क्या?
कहो हे आर्य! फिर भी चुप रहूँ क्या?"
कहा प्रभु ने कि--"हाँ, बस, चुप रहो तुम;
अरुन्तुद वाक्य कहते हो अहो! तुम!
जताते कोप किस पर हो, कहो तुम?
सुनो, जो मैं कहूँ, चंचल न हो तुम।
मुझे जाता समझ कर आज वन को,
न यों कलुषित करो प्रेमान्ध मन को।
तुम्हीं को तात यदि वन-वास देते,
उन्हें तो क्या तुम्हीं यों त्रास देते?
पिता जिस धर्म पर यों मर रहे हैं,
नहीं जो इष्ट वह भी कर रहे हैं,
उन्हीं कुल-केतु के हम पुत्र होकर--
करें राजत्व क्या वह धर्म खोकर?
प्रकृति मेरी स्वयं तुम जानते हो,
वृथा हठ हाय! फिर क्यों ठानते हो?