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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ १२

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यही टेक मैं तन्मयी छोर से,
लगी छेड़ने कान्त की ओर से।
अकस्मात निःशब्द आये जयी,
मनोवृत्ति थी नाथ की मन्मयी।
सखी, आप ही आपको वे हँसे--
’बड़े वीर थे, आज अच्छे फँसे!’
हँसी मैं, अजी, मानिनी तो गई,
बधाई! मिली जीत यों ही नई!
’प्रिये हार में ही यहाँ जीत है।
रुका क्यों तुम्हारा नया गीत है?’
जहाँ आ गई चाप-टंकार है,
वहाँ व्यर्थ-सी आप झंकार है।
’प्रिये, चाप-टंकार तो सो रही,
स्वयं मग्न झंकार में हो रही।’
भला!--प्रश्न है किन्तु संसार में--
भली कौन झंकार-टंकार में?
’शुभे, धन्य झंकार है धाम में,
रहे किन्तु टंकार संग्राम में।
इसी हेतु है जन्म टंकार का,
न टूटे कभी तार झंकार का।
यही ठीक, टंकार सोती रहे,
सभी ओर झंकार होती रहे।
सुनो, किन्तु है लोभ संसार में,
इसी हेतु है क्षोभ संसार में।
हमें शान्ति का भार जो है मिला,
इसी चाप की कोटियों से झिला।’

हुआ,--किन्तु कोदण्ड-विद्या-कला
मुझे व्यर्थ, क्यों और सीखूँ भला?
भले उर्मिला के लिए गान ये,
विवादी स्वरों से बचें कान ये।
करूँ शिष्यता क्यों तुम्हारी अहो,
बनूँ तांत्रिकी शिक्षिका जो कहो।
मृगों को धरो तो सही चाप से,
कहो, खींच लूँ मैं स्वरालाप से!
’अभी खींच ही जो लिया है! रहो,
बनी शिष्य से शिक्षिका, क्यों न हो!
तुम्हारी स्वरालाप-धारा बहे
पड़ा कूल में चाप मेरा रहे।’
इसी भाँति आलाप-संलाप में,
(न ऐसे महाशाप में, ताप में,)
हमारा यहाँ काल था बीतता,
न सन्तोष का कोश था रीतता।
हरे! हाय! क्या से यहाँ क्या हुआ?
उड़ा ही दिया मन्थरा ने सुआ!
हिया-पींजरा शून्य माँ को मिला,
गया सिद्ध मेरा, रही मैं शिला!

स्वप्न था वह जो देखा, देखूँगी फिर क्या अभी?
इस प्रत्यक्ष से मेरा परित्राण कहाँ अभी?

कूड़े से भी आगे
पहुँचा अपना अदृष्ट गिरते गिरते,
दिन बारह वर्षों में
घूड़े के भी सुने गये हैं फिरते!

रस पिया सखि, नित्य जहाँ नया,
अब अलभ्य वहाँ विष हो गया!
मरण-जीवन की यह संगिनी
बन सकी वन की न विहंगिनी!

सखि, यहाँ सब ओर निहार तू,
फिर विचार अतीत-विहार तू।
उदित-से सब हास-विलास हैं,
रुदित-से अब किन्तु उदास हैं।
स्वजनि, पागल भी यदि हो सकूँ,
कुशल तो, अपनापन खो सकूँ।
शपथ है, उपचार न कीजियो,
अवधि की सुधि ही तुम लीजियो।
बस इसी प्रिय-कानन-कुंज में,
मिलन-भाषण के स्मृति-पुंज में,
अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो,
हसन-रोदन से न पसीजियो।
सखि, न मृत्यु, न आधि, न व्याधि ही,
समझियो तुम स्वप्न-समाधि ही।
हहह! पागल हो यदि उर्मिला,
विरह-सर्प स्वयं फिर तो किला!
प्रिय यहाँ वन से जब आयँगे
सब विकार स्वयं मिट जायँगे।
न सपने सपने रह पायँगे,
प्रकटता अपनी दिखलायँगे।
अब भी समक्ष वह नाथ खड़े,
बढ़ किन्तु रिक्त यह हाथ पड़े।
न वियोग है न यह योग सखी,
कह कौन भाग्य मय भोग सखी?

विचारती हूँ सखि, मैं कभी कभी,
अरण्य से हैं प्रिय लौट आते।
छिपे छिपे आकर देखते सभी
कभी स्वयं भी कुछ दीख जाते!

आते यहाँ नाथ निहारने हमें,
उद्धारने या सखि, तारने हमें?
या जानने को, किस भाँति जी रहे?
तो जान लें वे, हम अश्रु पी रहे!

सखि, विचार कभी उठता यही--
अवधि पूर्ण हुई, प्रिय आ गये।
तदपि मैं मिलते सकुचा रही;
वह वही, पर आज नये नये!

निरखती सखी, आज मैं जहाँ,
दयति-दीप्ति ही दीखती वहाँ।