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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ ११

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अर्थ, तुझे भी हो रही पदप्राप्ति की चाह?
क्या इस जलते हृदय में और नहीं निर्वाह?

स्वजनि, रोता है मेरा गान,
प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान।

झिलता नहीं समीर पर इस जी का जंजाल,
झड़ पड़ते हैं शून्य में बिखर सभी स्वर-ताल।
विफल आलाप-विलाप समान,
स्वजनि, रोता है मेरा गान।

उड़ने को है तड़पता मेरा भावानन्द,
व्यर्थ उसे पुचकार कर फुसलाते हैं छन्द।
दिखा कर पद-गौरव का ध्यान।
स्वजनि, रोता है मेरा गान।

अपना पानी भी नहीं रखता अपनी बात,
अपनी ही आँखें उसे ढाल रहीं दिन-रात।
जना देते हैं सभी अजान,
स्वजनि, रोता है मेरा गान।

दुख भी मुझसे विमुख हो करें न कहीं प्रयाण,
आज उन्हीं में तो तनिक अटके हैं ये प्राण।
विरह में आ जा, तू ही मान!
स्वजनि, रोता है मेरा गान।

यही आता है इस मन में,
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।

प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
व्यथा रहे, पर साथ साथ ही समाधान भरपूर।
हर्ष डूबा हो रोदन में,
यही आता है इस मन में।

बीच बीच में उन्हें देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जायँ तब लोटूँ उसी धूल में लोट।
रहें रत वे निज साधन में,
यही आता है इस मन में।

जाती जाती, गाती गाती, कह जाऊँ यह बात--
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात।
प्रेम की ही जय जीवन में,
यही आता है इस मन में।

अब जो प्रियतम को पाऊँ
तो इच्छा है, उन चरणों की रज मैं आप रमाऊँ!
आप अवधि बन सकूँ कहीं तो क्या कुछ देर लगाऊँ,
मैं अपने को आप मिटाकर, जाकर उनको लाऊँ।
ऊषा-सी आई थी जग में, सन्ध्या-सी क्या जाऊँ?
श्रान्त पवन-से वे आवें, मैं सुरभि-समान समाऊँ!
मेरा रोदन मचल रहा है, कहता है, कुछ गाऊँ,
उधर गान कहता है, रोना आवे तो मैं आऊँ!
इधर अनल है और उधर जल हाय! किधर मैं जाऊँ?
प्रबल बाष्प, फट जाय न यह घट कह तो हाहा खाऊँ?

उठ अवार न पार जाकर भी गई,
उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!
अटक जीवन के विशेष विचार में,
भटकती फिरती स्वयं मँझधार में,
सहज कर्षण कूल, कुंज, कछार में,
विषमता है किन्तु वायु-विकार में,
और चारों ओर चक्कर हैं कई,
उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!
पर विलीन नहीं, रहूँ गतिहीन मैं,
दैन्य से न दबूँ कभी, वह दीन मैं।
अति अवश हूँ, किन्तु आत्म-अधीन मैं;
सखि, मिलन के पूर्व ही प्रिय-लीन मैं।
कर सका सो कर चुका अपना दई,
उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!

आये एक बार प्रिय बोले--’एक बात कहूँ,
विषय परन्तु गोपनीय सुनों कान में!’
मैं ने कहा-’कौन यहाँ?’ बोले-’प्रिये, चित्र तो हैं;
सुनते हैं वे भी राजनीति के विधान में।’
लाल किये कर्णमूल होंठों से उन्होंने कहा-
’क्या कहूँ सगद्गद हूँ, मैं भी छद-दान में;
कहते नहीं हैं , करते हैं कृती!’ सजनी मैं
खीझ के भी रीझ उठी उस मुस्कान में!

मेरे चपल यौवन-बाल!
अचल अंचल में पड़ा सो, मचल कर मत साल।
बीतने दे रात, होगा सुप्रभात विशाल,
खेलना फिर खेल मन के पहन के मणि-माल।
पक रहे हैं भाग्य-फल तेरे सुरम्य-रसाल,
डर न, अवसर आ रहा है, जा रहा है काल।
मन पुजारी और तन इस दुःखिनी का थाल,
भेंट प्रिय के हेतु उसमें एक तू ही लाल!

यही वाटिका थी, यही थी मही,
यही चन्द्र था, चाँदनी थी यही।
यहीं वल्लकी मैं लिए गोद में
उसे छेड़ती थी महा मोद में।
यही कण्ठ था, कौन-सा गान था?-
’न था दुर्ग तू, मानिनी-मान था!’