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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ १०

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बिखर कली झड़ती है, कब सीखी किन्तु संकुचित होना?
संकोच किया मैं ने, भीतर कुछ रह गया, यही रोना!

अरी, गूँजती मधुमक्खी;
किसके लिए बता तू ने वह रस की मटकी रक्खी?
किसका संचय दैव सहेगा?
काल घात में लगा रहेगा,
व्याध बात भी नहीं कहेगा,
लूटेगा घर लक्खी!
अरी, गूँजती मधुमक्खी।
इसे त्याग का रंग न दीजो,
अपने श्रम का फल है, लीजो,
जयजयकार कुसुम का कीजो,
जहाँ सुधा-सी चक्खी।
अरी, गूँजती मधुमक्खी!

सखि, मैं भव-कानन में निकली
बन के इसकी वह एक कली,
खिलते खिलते जिससे मिलने
उड़ आ पहुँचा हिल हेम-अली।
मुसकाकर आलि, लिया उसको,
तब लों यह कौन बयार चली,
’पथ देख जियो’ कह गूँज यहाँ
किस ओर गया वह छोड़ छली?

छोड़, छोड़, फूल मत तोड़, आली, देख मेरा
हाथ लगते ही यह कैसे कुम्हलाये हैं?
कितना विनाश निज क्षणिक विनोद में है,
दुःखिनी लता के लाल आँसुओं से छाये हैं।
किन्तु नहीं, चुन ले सहर्ष खिले फूल सब
रूप, गुण, गन्ध से जो तेरे मनभाये हैं,
जाये नहीं लाल लतिका ने झड़ने के लिए,
गौरव के संग चढ़ने के लिए जाये हैं।

कैसी हिलती डुलती अभिलाषा है कली, तुझे खिलने की,
जैसी मिलती जुलती उच्चाशा है भली मुझे मिलने की!

मान छोड़ दे, मान, अरी,
कली, अली आया, हँस कर ले, यह वेला फिर कहाँ धरी,
सिर न हिला झोंकों में पड़ कर, रख सहृदयता सदा हरी,
छिपा न उसको भी प्रियतम से यदि है भीतर धूलि भरी।

भिन्न भी भाव-भंगी में भाती है रूप-सम्पदा,
फूल धूल उड़ा के भी आमोदप्रद है सदा।

फूल, रूप-गुण में कहीं मिला न तेरा जोड़;
फिर भी तू फल के लिए अपना आसन छोड़।

सखि, बिखर गईं हैं कलियाँ,
कहाँ गया प्रिय झुकामुकी में करके वे रँग-रलियाँ?
भुला सकेंगी पुनः पवनको अब क्या इनकी गलियाँ?
यही बहुत, ये पचें उन्हीं में जो थीं रंगस्थलियाँ।

कह कथा अपनी इस घ्राण से,
उड़ गये मधु-सौरभ प्राण-से।
फल हमें हमको-तुमको सखी,
तदपि बीज रहें सब त्राण-से।
उठती है उर में हाय! हूक,
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
क्या ही सकरुण, दारुण, गभीर,
निकली है नभ का चित्त चीर;
होते हैं दो दो दृग सनीर,
लगती है लय की एक लूक!
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
तेरे क्रन्दन तक में सु-गान,
सुनते हैं जग के कुटिल कान;
लेने में ऐसा रस महान।
हम चतुर करें किस भाँति चूक!
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
री, आवेगा फिर भी वसन्त;
जैसे मेरे प्रिय प्रेमवन्त।
दुःखों का भी है एक अन्त,
हो रहिए दुर्दिन देख मूक।
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?

अरे एक मन, रोक थाम तुझे मैं ने लिया,
दो नयनों ने, शोक, भरम खो दिया, रो दिया!

हे मानस के मोती, ढलक चले तुम कहाँ बिना कुछ जाने?
प्रिय हैं दूर गहन में, पथ में है कौन जो तुम्हें पहचाने?

न जा अधीर धूल में,
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
रहे एक ही पानी चाहे हम दोनों के मूल में,
मेरे भाव आँसुओं में हैं, और लता के फूल में।
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
फूल और आँसू दोनों ही उठें हृदय की हूल में,
मिलन-सूत्र-सूची से कम क्या अनी विरह के शूल में।
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
मधु हँसने में, लवण रुदन में रहे न कोई भूल में,
मौज किन्तु मँझधार बीच है किंवा है वह कूल में?
दृगम्बु, आ, दुकूल में।

नयनों को रोने दे,
मन, तू संकीर्ण न बन, प्रिय बैठे हैं,
आँखों से ओझल हों,
गये नहीं वे कहीं, यहीं पैठे हैं!

आँख, बता दे तू ही, तू हँसती या यथार्थ रोती है?
तेरे अधर-दशन ये, या तू भर अश्रुबिन्दु ढोती है?

सखे, जाओ तुम हँसकर भूल, रहूँ मैं सुध करके रोती।
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
मानती हूँ, तुम मेरे साध्य,
अहर्निशि एक मात्र आराध्य,
साधिका मैं भी किन्तु अवाध्य,
जागती होऊँ, या सोती।
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
सफल हो सहज तुम्हारा त्याग,
नहीं निष्फल मेरा अनुराग,
सिद्धि है स्वयं साधना-भाग,
सुधा क्या, क्षुधा जो न होती।
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
काल की रुके न चाहे चाल,
मिलन से बड़ा विरह का काल;
वहाँ लय, यहाँ प्रलय विकराल!
दृष्टि मैं दर्शनार्थ धोती!
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!