भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ ९

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

श्लाघनीय हैं एक-से दोनों ही द्युतिमन्त,
जो वसन्त का आदि है, वही शिशिर का अन्त।

ज्वलित जीवन धूम कि धूप है,
भुवन तो मन के अनुरूप है।
हसित कुन्द रहे कवि का कहा,
सखि, मुझे वह दाँत दिखा रहा!

हाय! अर्थ की उष्णता देगी किसे न ताप?
धनद-दिशा में तप उठे आतप-पति भी आप।

अपना सुमन लता ने
निकाल कर रख दिया, बिना बोले,
आलि, कहाँ वनमाली,
झड़ने के पूर्व झाँक ही जो ले?

काली काली कोईल बोली--
होली-होली-होली!
हँस कर लाल लाल होठों पर हरयाली हिल डोली,
फूटा यौवन, फाड़ प्रकृति की पीली पीली चोली।
होली-होली-होली!
अलस कमलिनी ने कलरव सुन उन्मद अँखियाँ खोली,
मल दी ऊषा ने अम्बर में दिन के मुख पर रोली।
होली-होली-होली!
रागी फूलों ने पराग से भरली अपनी झोली,
और ओस ने केसर उनके स्फुट-सम्पुट में घोली।
होली-होली-होली!
ऋतुने रवि-शशि के पलड़ों पर तुल्य प्रकृति निज तोली
सिहर उठी सहसा क्यों मेरी भुवन-भावना भोली?
होली-होली-होली!
गूँज उठी खिलती कलियों पर उड़ अलियों की टोली,
प्रिय की श्वास-सुरभि दक्षिण से आती है अनमोली।
होली-होली-होली!

जा, मलयानिल, लौट जा, यहाँ अवधि का शाप,
लगे न लू होकर कहीं तू अपने को आप!

भ्रमर, इधर मत भटकना, ये खट्टे अंगूर,
लेना चम्पक-गन्ध तुम, किन्तु दूर ही दूर।

सहज मातृगुण गन्ध था कर्णिकार का भाग;
विगुण रूप-दृष्टान्त के अर्थ न हो यह त्याग!

मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!

फूल! खिलो आनन्द से तुम पर मेरा तोष;
इस मनसिज पर ही मुझे दोष देख कर रोष।

आई हूँ सशोक मैं अशोक, आज तेरे तले,
आती है तुझे क्या हाय! सुध उस बात की।
प्रिय ने कहा था-’प्रिये, पहले ही फूला यह,
भीति जो थी इसको तुम्हारे पदाघात की!’
देवी उन कान्ता सती शान्ता को सुलक्ष कर,
वक्ष भर मैं ने भी हँसी यों अकस्मात की--
’भूलते हो नाथ, फूल फूलते ये कैसे, यदि
ननद न देतीं प्रीति पद-जलजात की!’

सूखा है यह मुख यहाँ, रूखा है मन आज;
किन्तु सुमन-संकुल रहे प्रिय का वकुल-समाज।

करूँ बड़ाई फूल की या फल की चिरकाल?
फूला-फला यथार्थ में तू ही यहाँ रसाल!

देखूँ मैं तुझको सविलास;
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
अतुल अम्बुकुल-सा अमल भला कौन है अन्य?
अम्बुज, जिसका जन्य तू धन्य, धन्य, ध्रुव धन्य!
साधु सरोवर-विभव-विकास!
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
कब फूलों के साथ फल, फूल फलों के साथ?
तू ही ऐसा फूल है फल है जिसके हाथ।
ओ मधु के अनुपम आवास,
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
एक मात्र उपमान तू, हैं अनेक उपमेय,
रूप-रंग गुण-गंध में तू ही गुरुतम, गेय।
ओ उन अंगो के आभास!
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
तू सुषमा का कर कमल, रति-मुखाब्ज उदग्रीव;
तू लीला-लोचन नलिन, ओ प्रभु-पद राजीव!
रच लहरों को लेकर रास,
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
सहज सजल सौन्दर्य का जीवन-धन तू पद्म,
आर्य जाति के जगत की लक्ष्मी का शुभ सद्म।
क्या यथार्थ है यह विश्वास,
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
रह कर भी जल-जाल में तू अलिप्त अरविन्द,
फिर तुझ पर गूँजें न क्यों कविजन-मनोमिलिन्द!
कौन नहीं दानी का दास?
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
तेरे पट है खोलता आकर दिनकर आप;
हरता रह निष्पाप तू हम सब के सन्ताप।
ओ मेरे मानस के हास!
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!

पैठी है तू षट्पदी, निज सरसिज में लीन;
सप्तपदी देकर यहाँ बैठी मैं गति-हीन!