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साज़िश-ए-दरबार थी और कुछ न था / अनीस अंसारी

साज़िश-ए-दरबार थी और कुछ न था
नाम पर यलग़ार थी और कुछ न था

चुभ रहा था इक ख़ुदा का नामगो
कुछ बुतों को ख़ार थी और कुछ न था

इक इशारे पर मैं उठता बज़्म से
बेसबब तकरार थी और कुछ न था

कोहकन खोदा किया पत्थर में नहर
काविश-ए-बाकार थी और कुछ न था

खटखटाई जिस तरफ़ ज़न्जी-ए-दर
संग की दीवार थी और कुछ न था

चुप रहे अहल-ए-मरातिब क़त्ल पर
लाश थी, सरकार थी और कुछ न था

सर उठाना सख़्त मुश्किल था “अनीस”
ताज पर तलवार थी और कुछ न था