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सीताका कर हरण / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग हंसध्वनि-तीन ताल)
सीताका कर हरण दुष्टस्न् रावण जब लङङ्कामें लाया।
 दिये प्रलोभन अमित, विविध विधिसे ड्डुञ्सलाया समझाया॥
 क्रञेधातुर हो सती जानकीने जब उसको फटकारा।
 रखकर सीताको अशोक-वन, लौट गया वह मन-मारा॥
 जगज्जननि जानकिको जब सुरपतिने देखा दुःख-‌अधीर।
 अति दुःखित हो, चरु लेकर जब आये, शुचि शचिपति सुर-वीर॥
 आश्वासन दे, कहा-’जननि ! रावणका कर सवंश संहार।
 विजयी हो रघुवर, तुमको ले जायेंगे निज संग उदार॥
 कुञ्छ दिन धीरज धरो, करो अनुचरकी यह सेवा स्वीकार।
 दिव्य देव-हवि-‌अन्न ग्रहणकर क्षुधा-तृषासे पावो पार॥
 भूख-प्यासकी बाधा मैया ! कभी न होगी तुमको अब।
 सीताने सुरपतिको जब पहचाना, लिया दिव्य चरु तब॥
 माताकी शुभ आशिष पाकर सुखसे लौट गये सुरराज।
 धन्य वही, जिसका तन-मन-धन लगता सदा रामकेञ् काज॥