भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनहले पेड़ / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये सुनहले पेड़
दिन के
धूप कोठी की हवाएँ बोलती हैं
बात गिन के।

सामने बहती नदी है
कौन तिथि कैसी सदी है
टूटते हर छाँव
तिनके।

नींद में आवाज़ देना
पत्तियों में साँस लेना
जानता हूँ राज
इनके।

फूल थे मुरझा रहे हैं
भीड़ होते जा रहे हैं
चुटकुले भाई-बहिन के।