सूरज की डिक्टेटरशिप / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
सूरज!
तुम्हारी मैं ‘डिक्टेटरशिप’ को
अधिनायकत्व को
आ रहा देखता
युगों-युगों से हूँ।
आती है सवारी
जब सुबह तुम्हारी
तो धरती-आसमान
मिल दोनों हैं बिछाते
नित्य ‘रेडकार्पेट’
हेतु स्वागत तुम्हारे
बिना मिले ही इशारे।
गुंजित दिक् मण्डल
हो उठता है
स्वागत के गीतों से
झुकते असंख्य सिर धरती के।
और
फिर तुम उतरते हो
क्षितिज के मंच पर
‘मैजेस्टिक’ चाल से
क्रोध में जलते
तमतमाते हुए चेहरे युक्त।
आते ही सर्व प्रथम
करते सफाया तुम एकदम
व्योम के अनगिनत तारों की
नन्हीं सरकारों का
किरणों के अग्नि-बाण
अनगिनत छोड़ कर
एक-एक तारे के राज्य को
बीन कर, भून कर
ढेरी कर देते हो राख की।
कुछ देर तक जो कि
करता ‘रसिस्ट’ हैसाहस कर
सत्ता निरंकुश तुम्हारी को
अनगिनत तारों का राजा जो
चन्द्रमा,
पता नहीं-क्या तुम हो
कर देते उसको जो
वह भी पड़ जाता है पीला
और
घुट-घुट कर,
घुट-घुट कर
देखता टुकुर-टुकुर
आँसू ढुलकाता हुआ
अपने और तारों के देश को
देश के भविष्य को
बंद हो तुम्हारे
अग्निवत किरण-सींकचों के पीछे से।
इस प्रकार
सब की कर राख तुम अस्थियाँ
सबकी मिटा कर के तुम हस्तियाँ
लेते हो मस्तियाँ।
बढ़ते हो निर्भय हो
निष्कंटक मार्ग पर;
चढ़ते हो चमकते
विश्व की आँखों में
चकाचोंध भरते
वैभव के उच्चतम शिखर पर।
किसका है साहस जो
आँख तक उठा सके
तुम से मिला सके
उच्च सिंहासन तुम्हारा हिला सके।
दूर रहते हो
आसमान की ऊँचाई पर
ऐसे उस दुर्ग में
चारों ओर जिसके है
खुदी हुई खाई
भरी आग के समुंदर से।
उठती हैं लहरों की
लपटें जो भीषणतम
कौन कर पार उन्हें
पहुँच सकता है पास
तुमसे बात करने को!
एक छत्र राज्य तुम
करते हो विश्व पर
अद्वितीय ‘डिक्टेटर’
अधिनायक बन कर।
किन्तु
ओ, मेरे मित्र सूरज!
हर सुबह साथ में
शाम भी लाती है
रावणता साथ में
राम भी लाती है।
मैं हूँ मनु-पुत्र
आ रहा हूँ मैं देखता
युगों-युगों से उन सूर्यों को
आये तमतमाते-दमदमाते हुए
किन्तु जब गये तो
रक्त से लथपथ हो गये वे;
क्षितिज ने उठाया शव उनका
और
फेंक दिया तम के समुद्र में।
2/3.1.77