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स्वयं की थाल व्यंजनों से सजाया उसने / डी. एम. मिश्र
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स्वयं की थाल व्यंजनों से सजाया उसने
कभी किसान के बारे में भी सोचा उसने
तुझे गुरूर है दौलत पे, सोने -चांदी पे
कभी हीरे - जवाहरात भी खाया उसने
बड़े आराम से वो देवता तो बन बैठा
कभी इंसानियत भी करके दिखाया उसने
कोई एहसान किया उसको मजूरी देकर
तपते मौसम में पसीना है बहाया उसने
सहज स्वभाव की सच्ची ग़ज़ल मैं कहता हूँ
सरल सपाट मगर कहके चिढ़ाया उसने
हज़ारों खुशियों के दरवाज़े खुल गये होते
दिल के कोने को कभी अपने खंगाला उसने
पता है मुझको, उसे रोशनी से बस मतलब
शमा पे क्या है गुज़रती कभी देखा उसने