हत्या / शरद कोकास
नकली दाढ़ी मूँछ लगाकर खिलौना बंदूक से
हत्या हत्या खेलते थे वे बचपन में
एक बच्चा गोली दागता और फिल्मों में खलनायक की तरह
दूसरा गिरता धड़ाम
यह जीवन के अदृश्य आघातों की शुरुआत थी
जहाँ रास्ते खुद चुनते थे अपनी दिशाएँ
चोर सिपाही के खेल की तरह
बचपन के अभिनयपरक खेलों में शामिल
हत्या हत्या का यह खेल
समय के उस सॉफ्टवेयर इंजीनियर की देन था
जो बचपन के मनोरंजन में
उत्साह उमंग और खुशी के लिए
क्रूरता, उत्पीड़न, आवेग और अधीरता के प्रोग्राम बना रहा था
यद्यपि खेल की तरह ही था यह खेल
वहाँ कोई ख़्याल न था अपनी हत्या या किसी की हत्या का
यहाँ तक कि खेल का नाम भी हत्या हत्या नहीं था
बहुत छोटी थी बचपन की वह दुनिया
और खेल की अवधि अभी समाप्त नहीं हुई थी
सो न दिखाई देने वाली हत्याओं का यह खेल
जीवन भर नए रूप में खेला जाता रहा
कभी मन को मारा गया कभी भूख को
इच्छाओं को गर्भ में ज़हर दिया गया
सपनों को भूना गया यथार्थ की गोलियों से
आशाओं को फाँसी पर लटकाया गया
बेरहमी से कुचला गया महत्वाकांक्षाओं को
ज़रूरतों के सीने में विवशता के ख़ंजर उतारे गए
खाली जेब में पड़ी उंगलियों ने
लुभावनी वस्तुएँ छूने की चाहत का गला घोंटा
भूख से कुलबुलाती अँतड़ियों ने
सोंधी खुशबुओं की साँसें रोक दीं
सड़क पर घिसटते पाँवों ने
कालीनों पर चलने की कामना का क़त्ल किया
आँसुओं ने मुस्कान को जल समाधि दे दी
व्यवस्था के प्रति उपजते आक्रोश को
जन्मने से पूर्व बम से उड़ा दिया गया
इस तरह निर्विघ्न संपन्न होती रहीं
दुनिया को न दिखाई देने वाली हत्याएँ
जन्मना अपराध की परिभाषा से परे
कुत्सित आरोप की परिधि से बाहर
सार्वजनिक अपराध बोध से मुक्त हत्याएँ
भीतर ही भीतर घटित होने वाली इन हत्याओं के बाद
अंत में घटित हुई एक सचमुच की हत्या
जो सब को दिखाई दे गई।
-2002