Last modified on 27 अप्रैल 2013, at 08:24

हमारे शह्र में हर अजनबी, इक हमज’बां चाहे / पवन कुमार


हमारे शह्र में हर अजनबी, इक हमज’बां चाहे
मगर कुछ है जो बाशिन्दा यहाँ का दरमियां चाहे

उम्मीदें मंज़िलों की अब तो हमको ज़र्द लगती हैं
ख़बर है इस सफर में कारवाँ भी सायबां चाहे

करा दो आशना सच से कि जोखिम है बहुत इसमें
ज़मीं क’दमों से गायब है मगर वो आस्मां चाहे

हम उसकी जि’न्दगी से इस क’दर मानूस हैं या रब
किताबे-ज़िंदगी उसकी हमारी दास्तां चाहे

बहुत बेख़ौफ’ होकर फूल जो सहरा में उगता था
बदलते वक्“त में वो भी ख़ुदा से बाग“वां चाहे

सायबां = छाया, आशना = परिचित, मानूस = परिचित/हिले-मिले, सहरा = खाली मैदान,
बाग“वां = माली