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हर्फ़-ए-जाँ दिल में निहाँ हर्फ़-ए-ज़बाँ शहर में था / 'शहपर' रसूल

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हर्फ़-ए-जाँ दिल में निहाँ हर्फ़-ए-ज़बाँ शहर में था
आग का नाम न था फिर भी धुआँ शहर में था

शोर सहरा का सुना शोर समंदर का सुना
शोर का नाम ही था शोर कहाँ शहर में था

बस ज़रा अक्स ही उभरा था सफ़ों में मेरा
एक हँगामा-ए-कोताह क़दाँ शहर में था

रात ही रात यक़ीं ने कई शक्लें बदलीं
जो नहीं था वही होने का गुमाँ शहर में था

आतिश ओ क़त्ल नहीं शोर नहीं चीख़ नहीं
सिर्फ़ और सिर्फ़ धुआँ सिर्फ़ धुआँ शहर में था

देखना आँख ने क्या सीख लिया था साहब
एक दो चीज़ नहीं सारा जहाँ शहर में था

मुस्तक़र किस को बनाते कहाँ रहते ‘शहपर’
गाँव में था तो कभी सर्व-ए-रवाँ शहर में था