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हाथ कुछ आया नहीं अब और बस / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
हाथ कुछ आया नहीं अब और बस
आज तक खाती रही ख़ुद पर तरस
उस जगह भी खिल उठे ताज़ा गुलाब
जिस जगह बोया गया था कैक्टस
फूल ऐसे भी चमन में हैं हुज़ूर
छू नहीं सकता जिन्हें कोई मघस
अब्र है तो फिर भिगो दे ये ज़मीं
अश्क़ है तो फिर मिरे दिल पर बरस
जब तिरे बारे में सोचा है तो फिर
थक गयी है ज़ेहन की इक एक नस
फिर उदासी रक्स आमादा हुई
मेरे घर तन्हाई को देखा की बस
ऐ सिया मैं हो रही हूँ मुज्महिल
देख कर हिरस ओ हवस के ख़ार-ओ-ख़स