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हादसों के नगर में चले जा रहे / डी. एम. मिश्र

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हादसों के नगर में चले जा रहे
परिजनों से भी अपने छले जा रहे

ज़िन्दगी खप गयी दूसरों के लिए
सोचकर ‌रात दिन हम ढले जा रहे

क्या मिला मुझको यह प्रश्न मत पूछिए
दोस्तो, हाथ केवल मले जा रहे

क्या कोई पुण्य मैंने किया ही नहीं
पाप के दरख़्त ही जो फले जा रहे

मैंने विश्वास भी करना छोड़ा नहीं
साँप भी आस्तीं में पले जा रहे

धीरे -धीरे हम उस पर मोड़ पर आ गये
धीरे-धीरे सभी मसअले जा रहे

फ़िक्र करने की क्या है ज़रूरत तुम्हें
साजो सामां नहीं , हम भले जा रहे