भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुलज़ूम से ज़ियादा / इमाम बख़्श 'नासिख'
Kavita Kosh से
हैं अश्क मिरी आँखों में क़ुलज़ूम से ज़ियादा
हैं दाग़ मिरे सीने में अंजुम से ज़ियादा
सौ रम्ज़ की करता है इशारे में वो बातें
है लुत्फ़ ख़मोशी में तकल्लुम से ज़ियादा
जुज़ सब्र दिला चारा नहीं इश्क़-ए-बुताँ में
करते हैं ये ज़ुल्म और तज़ल्लुम से ज़ियादा
मय-ख़ाने में सौ मरतबा मैं मर के जिया हूँ
है क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे क़ुम-क़ुम से ज़ियादा
सौ रक़्स से अफ़्जूँ है परी-रू तिरी रफ़्तार
पाँव की सदा लाख तरन्नुम से ज़ियादा
तकलीफ़-ए-तकल्लुफ़ से किया इश्क़ ने आज़ाद
मू-ए-सर-ए-शोरीदा हैं क़ाक़ुम से ज़ियादा
माशूक़ों से उम्मीद-ए-वफ़ा रखते हो ‘नासिख़’
नादाँ कोई दुनिया में नहीं तुम से ज़ियादा