भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

है सफ़र दर्द का तवील बहुत / मेहर गेरा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
है सफ़र दर्द का तवील बहुत
रास्ते में हैं संगे-मील बहुत

एक ही जस्त में करूँगा पार
चाहे ऊँची है वो फ़सील बहुत

मैं मसीहा नहीं मगर यारो
मेरे तन पर लगे हैं कील बहुत

फ़ुर्सते-ग़म भी अब नहीं मिलती
ज़िन्दगी हो गई बखील बहुत

आह लम्बी मुसाफ़तों का लुत्फ
अब तो लगता है एक मील बहुत

किसको फ़ुर्सत है कौन इसको सुने
दास्तां है मेरी तवील बहुत

क़त्लगह में निडर खड़ा हूँ मैं
ज़िन्दगी की है यह दलील बहुत

डूब कर इसमें कौन उभर पाए
मेहर गहरी है ग़म की झील बहुत।