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होरी में ग‌ए हार सकल खल-दल-संहारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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होरी में ग‌ए हार सकल खल-दल-संहारी॥
सखी-सहचरी सब कौं लै सँग, भरि रस-रँग पिचकारी।
मधुर बदन, कोमल सब तन पर हेरि-हेरि कै मारी॥
रँगीली कीर्ति-कुमारी॥
लाल कपोल गुलाल लपेटे, दृग सुरभित जल डारी।
भाजि चले मन-मोहन सोहन पौंछत नयननि बारी॥
हँसी सखि दै कर-तारी॥
मुरली कर सौं परी धरनि पर, मोर-सिखा महि डारी।
भ‌ए स्रमित, मृदु चरन डगमगे, बैठि ग‌ए मन मारी॥
घेरि लि‌ए सखिन मुरारी॥
बोलीं बचन यंग सखि मृदु हँसि-’बड़े बीर गिरिधारी !
सहि न सके नारी-कोमल-कर-कंजनि की पिचकारी॥
लाज सब कहाँ बिसारी’॥
सुनि सखि-बचन सकुचि हरि बोले-’री बृषभानु-दुलारी !
मैं तो प्रिये ! सदा कौ हार्‌यौ, न‌ई हार कहा हारी॥
चरन-रज हौं बलिहारी’॥
सुनि मृदु बचन, स्रमित लखि पिय कौं दुखित भर्‌ईं हिय भारी।
राधा आ‌इ उठा‌इ प्रान-धन सिंघासन बैठारी॥
करन लगी बसन बयारी॥
सुभग अंग सब पौंछि अरुन निज पट सौं राधा प्यारी।
सीतल जल मुख धो‌इ अलक निज कर सरुझा‌ई झारीं॥
मुदित भ‌इ लखि ब्रज-नारीं॥