101 से 110 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद 103 से 104 तक
(103)
यह बिनती रघुबीर गुसाईं।
और आस-विस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई।1।
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढै़ अनुदिन अधिकाई।2।
कुटिल करम लै जाहिं मोहि, जहँ जहँ अपनी बरिआई।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं।3।
या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।
तें सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं।4।
(104)
जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।
चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं।1।
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।
मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं।2।
श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।
रोकिहौं नसन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं।3।
नातो-नेह नाथसों करि सब नातों-नेह बहैहौं।
यह ठर -भार ताहि तुलसी जग जाकेा दास कहैहौं।4।