111 से 120 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद 117 से 118 तक
(117)
हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै।
जेहिं उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति सोइ निसि-बासर कीजै।1।
जानत अर्थ अनर्थ -रूप, तमकूप परब यहि लागे।
तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे।2।
भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मैं न बिचारो।
मद-मम्त्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो।3।
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।
बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी।4।
मैं अपराध-सिंधु करूनाकर! जनत अंतरजामी।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसति तव सरन उरग-रिपु -गामी।5।
(118)
हे हरि! कवन जतन सुख मानहु।
ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु।1।
जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरि पद-सुख पाइय कैसे।2।
देखत चारू मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी।
सबिष उरग-आहार , निठुर अस, सह करनी वह बानी।3।
अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल-अनुरागी।
ते तब प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी।4।
जद्यपि मम औगुन अपार, संसार -जोग्य रघुराया।
तुलसिदास निज गुन बिचारि करूनानिधान करू दाया।5।