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विनयावली / तुलसीदास / पद 111 से 120 तक / पृष्ठ 5


पद संख्या 119 तथा 120

(119)
हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।
देखत , सुनत , बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै।1।

भगति -ज्ञान- बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई।
कोउ भल कहउ देउ कछु, असि बासना न उतरे जाई।2।

जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै।।3।

 जद्यपि भग्न -मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत दुख पावै।
 चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै।4।

हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख , हरे बनिहिं प्रभु तोरे।5।

(120)
हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी।
जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी।1।

अर्थ अबिद्यमान जानिय, संसृति नहिं जाइ गोसाईं।
बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीरकी नाईं।2।

सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।
बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई।3।

श्रुति-गुरू-साधु-समृति-संमत यह दृष्य असत दुखकारी।
 तेहिं बिनु तजे , भजे बिनु रधुपति, बिपति सकै को टारी।4।

बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावैं।
तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै।5।