फाँक / संजय कुमार शांडिल्य

गाँव ऊँचे और निचले में नहीं बँटा था
ऊपर से नीचे दो फाड़ था

यह तो गजब था ख़ुदा के नाम पर
जादू ईश्वर के करिश्मे का

एक हिस्से के भूखे-नंगे लोग
दूसरे हिस्से के भूखे-नंगे लोगों
के ख़िलाफ़ थे

यह पता नहीं चलता था
कि महलो-दोमहलो में
ख़ुदा का गजब
और ईश्वर का करिश्मा
कितना कायम था

कभी-कभी खिड़कियाँ खोलकर
वहाँ से इन दिनों लोग
बाहर झाँक लेते थे
दूसरे हिस्से में दरार और
चौड़ी हो जाती थी

फाँक जो पहले से बड़ी थी
इन दिनों कुछ और बढ़ी थी ।

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