"काग़ज़ की कविता / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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22:22, 29 दिसम्बर 2007 का अवतरण
वे काग़ज़ जो हमारे जीवन में कभी अनिवार्य थे एक दिन रद्दी बनकर
चारों ओर जमा हो जाते हैं । जब हम सोने जाते हैं तब भी वे हमें
दिखाई देते हैं । वे हमारे स्वप्नों को रोक लेते हैं। सुबह जब हम अनिद्रा
की शिकायत करते हैं तो इसकी मुख्य वज़ह यही है कि हम उन
काग़ज़ों से घिरे सो रहे थे । चाहते हुए भी हम उन्हें बेच नहीं पाते
क्योंकि उनमें हमारे सामान्य व्यवहार दबे होते हैं जिन्हें हम अपने से
बताते हुए भी कतराते हैं । लिहाजा हम फाड़ने बैठ जाते हैं तमाम फ़ालतू
काग़ज़ों को ।
इस तरह फाड़ दी जाती हैं पुरानी चिट्ठियाँ जो हमारे बुरे वक़्त में
प्रियजनों ने हमें लिखी थीं । हमारे असफल प्रेम के दस्तावेज़ चिन्दी चिन्दी
हो जाते हैं । कुछ प्रमुख कवियों की कविताएँ भी फट जाती हैं । नष्ट
हो चुकते हैं वे शब्द जिनके बारे में हमने सोचा था कि इनसे मनुष्यता
की भूख मिटेगी । अब इन काग़ज़ों से किसी बच्चे की नाव भी नहीं
बन सकती और न थोड़ी दूर उड़कर वापस लौट आनेवाला जहाज़ ।
अब हम लगभग निश्शब्द हैं । हम नहीं जानते कि क्या करें । हमारे
पास कोई रास्ता नहीं बचा काग़ज़ों को फाड़ते रहने के सिवा ।
(1988)