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काग़ज़ की कविता / मंगलेश डबराल

Kavita Kosh से
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वे काग़ज़ जो हमारे जीवन में कभी अनिवार्य थे एक दिन रद्दी बनकर
चारों ओर जमा हो जाते हैं। जब हम सोने जाते हैं तब भी वे हमें
दिखाई देते हैं। वे हमारे स्वप्नों को रोक लेते हैं। सुबह जब हम अनिद्रा
की शिकायत करते हैं तो इसकी मुख्य वज़ह यही है कि हम उन
काग़ज़ों से घिरे सो रहे थे। चाहते हुए भी हम उन्हें बेच नहीं पाते
क्योंकि उनमें हमारे सामान्य व्यवहार दबे होते हैं जिन्हें हम अपने से
बताते हुए भी कतराते हैं। लिहाजा हम फाड़ने बैठ जाते हैं तमाम फ़ालतू
काग़ज़ों को।

इस तरह फाड़ दी जाती हैं पुरानी चिट्ठियाँ जो हमारे बुरे वक़्त में
प्रियजनों ने हमें लिखी थीं। हमारे असफल प्रेम के दस्तावेज़ चिन्दी चिन्दी
हो जाते हैं। कुछ प्रमुख कवियों की कविताएँ भी फट जाती हैं। नष्ट
हो चुकते हैं वे शब्द जिनके बारे में हमने सोचा था कि इनसे मनुष्यता
की भूख मिटेगी। अब इन काग़ज़ों से किसी बच्चे की नाव भी नहीं
बन सकती और न थोड़ी दूर उड़कर वापस लौट आनेवाला जहाज़।
अब हम लगभग निश्शब्द हैं। हम नहीं जानते कि क्या करें। हमारे
पास कोई रास्ता नहीं बचा काग़ज़ों को फाड़ते रहने के सिवा।

(1988)