Changes

वसन्त की रात-1 / अनिल जनविजय

23 bytes added, 13:51, 28 मार्च 2011
{{KKRachna
|रचनाकार=अनिल जनविजय
|संग्रह=}}{{KKAnthologyBasant}}{{KKCatKavita}}<Poem>
खिड़की के पास खड़ी होकर
 
वो चांद पकड़ना चाहे
 
फैली थी वितान में ऊपर
 
उसकी दो पतली बाहें
 
चमक रहा था उसका चेहरा
 
थी वसन्त की रात
 
चेहरे पर बरस रहा था उसके
 
चन्द्रकिरणों का प्रपात
</poem>