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शरद विजेता / मोहन साहिल

1,174 bytes added, 19:48, 31 मार्च 2011
|रचनाकार=मोहन साहिल
|संग्रह=एक दिन टूट जाएगा पहाड़ / मोहन साहिल
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<Poem>
लिखने के लिए हमेशा नहीं रहते कितनी तेज़? बर्फ़बारी है एक जैसे विषय सफेद हुई जा रही धरती की देहन हर बार स्याही से लिखे जाते हैं शब्द चारों ओर भयंकर हवाएँ पृष्ठों का बरसों कोरा रह जाना नहीं टिक पाएगा एक भी रखता है कोई अर्थ पुराना पेड़
कई बार घरों को लौटते लोग बदहवास हैं यूँ ही रखेओढ़नियों से सिरों को ढँके स्त्रियाँ बंदर-रखे टोपियाँ पहने पुरुष डायरी महसूस कर रहे हैं घुटती साँस दो कदम चलकर छटपटाते लोग बर्फ़ के कई पन्ने बवँडर खा जाती पाँव उखाड़ते रह-रहकर तूफान सबको चिंता है दीमक अपने प्राणों की या सीलन कर देती कोई नहीं सोच रहा बच्चों, बुज़ुर्गों और पशुओं की बाबत न ध्यान है काला किसी को काले बादलों में छिपे सूरज का
फिर इस घमासान में भी बँधे रहते नंगे पाँव संतुष्ट चेहरा लिए चल रहा है कोई शरद विजेता-साउसकी पिंडलियों की रक्त धमनियाँ रौंदती चली जा रही हैं बर्फ़ईबारत जाने क्यों वह आकाश देखकर मुस्कुरा देता है और सफेद के बीच चादर ओढ़े खाली पृष्ठ उत्सव मनाने लगती है धरती जीवन बादलों के शोक दिवस की तरह।पीछे सूरज हँस पड़ता है और बर्फ़् उसके आस-पास पिघलने लगती है।
</poem>