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|रचनाकार=भावना कुँअर
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अब ये दुनिया नहीं है भाती
 
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
 
 
खून-खराबा है गलियों में,
 
छिपे हुए हैं बम कलियों में,
 
है फटती धरती की छाती,
 
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
 
 
उज़ड़ गये हैं घर व आँगन,
 
छूट गये अपनों के दामन,
 
यही देख के मैं घबराती,
 
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
 
 
है बड़ी बेचैनी मन में,
 
नफ़रत फैली है जन-जन में,
 
नींद भी अब तो नहीं है आती,
 
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
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