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02:42, 18 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
मेरा बस्ता
जैसे भानमती का एक पिटारा ।
एक नहीं, दो नहीं,
क़िताबें उसमें रहतीं चार ।
उनके साथ कापियाँ,
स्याही, पेन, सभी का भार ।
लटकाते-लटकाते कन्धा दुखने लगता सारा ।
लंच-बाक्स भी तो
उसके अन्दर ही रखना पड़ता ।
थक जाती हैं टाँगें
जब भी जल्दी चलना पड़ता ।
हाय ! पढ़ाई का हो पाता बस्ते बिना गुज़ारा ।