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सर्जना के क्षण / अज्ञेय

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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=इन्द्र-धनु रौंदे हुए थे / अज्ञेय
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<poem>
एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत
फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति शिखायें
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप!
एक क्षण भर और <br> रहने दो मुझे अभिभूत <br>फिर जहाँ मैने संजो कर और लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी सब रखी हैं <br>हो नहीं सकते! ज्योति शिखायें <br>बूँद स्वाती की भले हो वहीं तुम भी चली जाना <br>बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को भले ही फिर व्यथा के तम में बरस पर बरस बीतें शांत तेजोरूपएक मुक्तारूप को पकते! <br><br>
एक क्षण भर और <br>'''दिल्ली, 17 मई, 1956'''लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते! <br>बूँद स्वाती की भले हो <br>बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से <br>वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को <br>भले ही फिर व्यथा के तम में <br>बरस पर बरस बीतें <br>एक मुक्तारूप को पकते! <br><br/poem>
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