भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सर्जना के क्षण / अज्ञेय
Kavita Kosh से
एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत
फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति शिखायें
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप!
एक क्षण भर और
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!
बूँद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीतें
एक मुक्तारूप को पकते!
दिल्ली, 17 मई, 1956