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तपस्या / निदा नवाज़
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07:07, 12 फ़रवरी 2016
उस दिन मुक्ति।
भीतर की टूट-फूट
मैं जीवन पथ पर
चल रहा था अकेले
हर तरफ़ वीराना था
हर दिशा ख़ामोशी थी
एक शांति सी थी
और
अचानक सुनाइ दीं
कहीं से आवाज़ें
टूट-फूट की
मारा-मरी की
देखा चारों ओर मैंने
कहीं कोई न था
मेरे सिवा
कि वे आवाज़ें आरहीं थीं
मेरे ही भीतर से।
</poem>
Lalit Kumar
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