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"बेहतर दुनिया के लिए / कर्मानंद आर्य" के अवतरणों में अंतर

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एक नाई ने जब लिखनी चाही अपनी पटकथा
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माँ के पेट से मरघट तक
स्याही ख़त्म हो गई
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कई अनुष्ठान सीखे हैं हमने
एक तमोली ने
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छाती ठोककर सरेआम
जब लाल करने चाहे अपने होंठ
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पटका है तथाकथित पहलवानों को
उसका बीड़ा छीनकर खा गए सामंत
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वे दिन गए जब वे अखाड़े में जीत जाते थे भौंहें हिलाकर
एक पासी ने जब लड़ने से इनकार कर दिया
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भय दिखाकर खेल खेललेते थे कुश्ती का
दबंगों ने काट दिए उसके हाथ
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पर उन्होंने हमारा धोबियापाट नहीं देखा था
चमारों ने एक समूह बनाया
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अखाड़े में वे अकेले शिक्षित थे
वे बेगारी नहीं करेंगे भूख की कीमत पर
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मिट्टी उनके जबर खेत से लाई जाती थी
तालाब का पानी पीने का हक मिलना चाहिए उन्हें भी
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चना उनके खेतों में उगता था
ठीक उसी समय
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गायें उनके घरों में ब्यातीं थीं
‘ब्राह्मण’ पत्रिका का सम्पादक
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उनके खलिहानों में कई औरतों का रक्त चूस लिया जाता था
कह रहा है अपने लोगों से
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तब भी वे चुप रहती थीं
‘चार माह बीते जजमान, अब तो करो दक्षिणा दान’
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उन्हीं का बल था उनकी भुजाओं में
हम कैसे नवजागरण में थे खुदा
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अब वही मिलते हैं अपने पुराने अहाते में
जहाँ पीने का पानी नहीं नसीब था इंसानों को
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तो बाअदब पूछते हैं
जहाँ हर गली में
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कैसे हो राकेश बाबू
विश्वविद्यालय की जगह ताजमहल बनाया जा रहा था
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कैसे चल रही है आपकी नूरा-कुश्ती
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किसी चीज की कमी तो नहीं
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यहाँ के पटवारी आपसे बहुत डरते हैं
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मेरे बाबा भी लड़ा करते थे, नामी पहलवान थे
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पर अब वे दिन कहाँ
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अब तो रहना दूभर कर दिया है नए कठमुल्लों ने
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मैं कहता वह जमाना दूसरा था
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अब जमाना दूसरा है
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समय के साथ बदलना चाहिए खुद
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सारे समीकरण बदल रहे हैं
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गणित तक बदल चुकी है
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आइये! अब हम दोनों को सुलझाने हैं सवाल
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दुनिया के कई दुर्गुण दूर हुए हैं
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स्वस्थ्य मन से लड़ने पर
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जो बाकी हैं उन्हें भी हम कर देंगे बाहर
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माँ के पेट से मरघट तक 
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हमने जो सीखा है उसी को चरितार्थ करना है
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हम मिलेंगे तो बनायेंगे बेहतर दुनिया
 
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11:28, 30 मार्च 2017 के समय का अवतरण

माँ के पेट से मरघट तक
कई अनुष्ठान सीखे हैं हमने
छाती ठोककर सरेआम
पटका है तथाकथित पहलवानों को
वे दिन गए जब वे अखाड़े में जीत जाते थे भौंहें हिलाकर
भय दिखाकर खेल खेललेते थे कुश्ती का
पर उन्होंने हमारा धोबियापाट नहीं देखा था
अखाड़े में वे अकेले शिक्षित थे
मिट्टी उनके जबर खेत से लाई जाती थी
चना उनके खेतों में उगता था
गायें उनके घरों में ब्यातीं थीं
उनके खलिहानों में कई औरतों का रक्त चूस लिया जाता था
तब भी वे चुप रहती थीं
उन्हीं का बल था उनकी भुजाओं में
अब वही मिलते हैं अपने पुराने अहाते में
तो बाअदब पूछते हैं
कैसे हो राकेश बाबू
कैसे चल रही है आपकी नूरा-कुश्ती
किसी चीज की कमी तो नहीं
यहाँ के पटवारी आपसे बहुत डरते हैं
मेरे बाबा भी लड़ा करते थे, नामी पहलवान थे
पर अब वे दिन कहाँ
अब तो रहना दूभर कर दिया है नए कठमुल्लों ने
मैं कहता वह जमाना दूसरा था
अब जमाना दूसरा है
समय के साथ बदलना चाहिए खुद
सारे समीकरण बदल रहे हैं
गणित तक बदल चुकी है
आइये! अब हम दोनों को सुलझाने हैं सवाल
दुनिया के कई दुर्गुण दूर हुए हैं
स्वस्थ्य मन से लड़ने पर
जो बाकी हैं उन्हें भी हम कर देंगे बाहर
माँ के पेट से मरघट तक
हमने जो सीखा है उसी को चरितार्थ करना है
हम मिलेंगे तो बनायेंगे बेहतर दुनिया