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मेरे सवालों तरक्की की चाह मेंएक दिन हाथ छुड़ा उससेनिकल आये थे आगे,एक बड़े शहर केबाहें फैलाये होने का जवाबजब न सुझाहोता था छद्माभास...मेरे सवालों सुनाई देती थी कानों कोएक आवाजआओ!!!चले आओ!!!यहाँ मिलेगी मंजिलबचा रक्खा है मैंनेतुम्हारे हिस्से का जवाबदाना-पानी...खड़ा कर दियाऔर हम जा पहुंचेतुमनेपाया दाना-पानी,मंजिल भी...पर इस बड़े शहर मेंइस तरक्की मेंसाथ न आया मनजाने कहाँ रह गया...शायद मन छोड़ न पाया उसेया अब भी थामे है कस केमन का हाथमुझ ही सवालोंवो मेरा छोटा शहर।
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