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"मेरा छोटा शहर / मंजूषा मन" के अवतरणों में अंतर

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मेरे सवालों का जवाब
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तरक्की की चाह में
जब न सुझा
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एक दिन हाथ छुड़ा उससे
मेरे सवालों का जवाब
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निकल आये थे आगे,
खड़ा कर दिया
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एक बड़े शहर के
तुमने
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बाहें फैलाये होने का
मुझ ही सवालों
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होता था छद्माभास...
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सुनाई देती थी कानों को
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एक आवाज
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आओ!!!
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चले आओ!!!
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यहाँ मिलेगी मंजिल
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बचा रक्खा है मैंने
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तुम्हारे हिस्से का दाना-पानी...
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और हम जा पहुंचे
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पाया दाना-पानी,
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मंजिल भी...
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पर इस बड़े शहर में
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इस तरक्की में
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साथ न आया मन
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जाने कहाँ रह गया...
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शायद मन छोड़ न पाया उसे
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या अब भी थामे है कस के
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मन का हाथ
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वो मेरा छोटा शहर।
 
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18:53, 17 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

तरक्की की चाह में
एक दिन हाथ छुड़ा उससे
निकल आये थे आगे,
एक बड़े शहर के
बाहें फैलाये होने का
होता था छद्माभास...
सुनाई देती थी कानों को
एक आवाज
आओ!!!
चले आओ!!!
यहाँ मिलेगी मंजिल
बचा रक्खा है मैंने
तुम्हारे हिस्से का दाना-पानी...
और हम जा पहुंचे
पाया दाना-पानी,
मंजिल भी...
पर इस बड़े शहर में
इस तरक्की में
साथ न आया मन
जाने कहाँ रह गया...
शायद मन छोड़ न पाया उसे
या अब भी थामे है कस के
मन का हाथ
वो मेरा छोटा शहर।