<poem>
यूं कई भूखंे जब रात में तड़पती हैं
सुबह किस दहलीज1 दहलीज तक पहुंचती हैं
जहाँ चाँद न हो और जुगनू का शमा
रात ऐसे में कैसे करवटें बदलती है
मुर्गे की तरह दर्द न जब बोल सके
भोर की आरजू2 आरजू उम्मीद में बदलती है
चिन्गारियां राख में दबी सिमट गयीं
आंसू बिन आंख रो-रो क्या कहती है