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"टॉर्च / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंगलेश डबराल |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मेरे बचपन के द…)
 
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मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
 
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
 
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम  
 
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम  
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की जरूरत
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बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की ज़रूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस खामोश रहे देर तक।
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पिता कुछ बोले नहीं बस ख़ामोश रहे देर तक।
  
 
इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
 
इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी

16:04, 18 जून 2020 का अवतरण

मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुन्दर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाईट में होते हैं
हमारे इलाके में रोशनी कि वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार कि तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी।


एक सुबह मेरी पड़ोस की दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी सी आग दे दो

पिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ उजाला होता है
यह रात होने पर जलती है
और इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ दिखाई देते हैं

दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की ज़रूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस ख़ामोश रहे देर तक।

इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक।