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आ गए सुस्ती के महीने, झपकी झपकियों के काहिल-शिथिल,यों लगता है, सचमुच यह.जीवन गुज़र चुका अनजान ।
काम-धाम सब ख़त्म करके वो घर में हुआ दाख़िल,
औ’ मेज़ किनारे आ दस्तारखान पर जा बैठा फिर देर से पहुँचा -दुरुस्त मेहमान ।
वो पीना चाहे है कुछ — पर उसे मदिरा नहीं भाती,
उस सुदूर देश के बारे में गाती है  ये सोनचिरैया, 
जहाँ हिम-तूफ़ान के पार मुश्किल से झलक रहा है
एक अकेली क़ब्र का ढूह औ’ उसकी मिट्टी की ढैया, 
जिसके ऊपर् ऊपर उजला-बिल्लौरी हिम चमक रहा है
वहाँ कभी सुनाई न देती भुर्जवृक्ष की फुसफुसाहट
जिसका मोटा तना बर्फ़ में कहीं गहरे धँसा हुआ है
वहीं उसके ऊपर फैली है पाले के घेरे की सुरसुराहट
तैर रहा जिसमें लहूलुहान-सा चन्द्रमा फँसा हुआ  है हुआ ।   
1952
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